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________________ समय : प्रथम अध्ययन--तृतीय उद्देशक २०६ करते हैं, जिसमें विलीन हो जाते हैं, उन सबका तादात्म्य (उपादान) कारण ईश्वर । ब्रह्म) ही है । यह सारा जगत् ब्रह्ममय है। यहाँ जो कुछ भी है, वह सब वही ब्रह्म (ईश्वर) है । जो भी सत या त्यत् उत्पन्न होते हैं, वे सब ब्रह्मकृत हैं । सत् हैं - पृथ्वी, जल और तेज, जो प्रत्यक्षरूप हैं; और त्यत् हैं -वायु और आकाश, जो परोक्षरूप हैं। तथा---'तदक्षत, तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्' [उसने (ब्रह्मा ने) देखा और जगत् का सर्जन करके उसी में अनुप्रविष्ट -लीन हो गया] 'एकोऽहं, बहुस्यामः' प्रजामेय' (मैं एक हूँ, बहुत हो जाऊँ, सृष्टि को पैदा करू) इत्यादि श्रुतियों के प्रमाण से भी यह बात सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त बादरायण व्यासरचित ब्रह्मसूत्र के 'जन्मायस्य यतः' (सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय इसी से होते हैं, इसीलिए यही जगत् का उपादान कारण है, और निमित्तकारण भी । उनकी ओर से निम्नलिखित अनुमानप्रमाण का प्रयोग भी किया जाता है ~~'ईश्वर जगत् का कर्ता है, क्योंकि वह चेतन है। जो चेतन होता है, वह कती होता है, जैसे कुम्हार ।' इस तर्क से भी वेदान्ती ईश्वर को जगत् की उत्पत्ति में कर्तारूप कारण मानते हैं । दूसरे कर्तृत्ववादी हैं—नैयायिक । नैयायिक मत आक्षपाद (अक्षपाद ऋषिकृत) मत कहलाता है। उस मत में महेश्वर (शिव) ही आराध्यदेव हैं। महेश्वर ही चराचर सृष्टि का निर्माण तथा उसका संहार करते हैं। महेश्वर की शक्ति का माहात्म्य अचिन्त्य है। उसी अचिन्त्य शक्ति से वे जगत का निर्माण और संहार करते हैं । नैयायिक जगत् को महेश्वरकृत गिद्ध करने के लिए अनुमान प्रयोग इस प्रकार करते हैं --पृथ्वी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, शरीर, भुवन, इन्द्रिय, आदि सभी किसी बुद्धिमान कर्ता के द्वारा किए गये हैं, क्योंकि ये कार्य हैं। जो-जो कार्य होते हैं, वे किसी न किसी बुद्धिमान के द्वारा ही किये जाते हैं, जैसे कि घड़ा। चूंकि यह जगत भी कार्य है, अतः यह भी किसी बुद्धिमान द्वारा निर्मित होना चाहिए। जो इस जगत् का रचयिता बुद्धिमान है, वही तो ईश्वर है। जो बुद्धिमान के द्वारा उत्पन्न नहीं किए गए, वे कार्य भी नहीं हैं, जैसे कि आकाश । यह व्यतिरेक दृष्टान्त है। फिर वे ईश्वरकर्तृत्वसिद्धि के लिए भी तीन हेतु प्रस्तुत करते हैं ----पहला यह है कि पृथ्वी, समुद्र, पर्वत आदि की रचना भिन्न-भिन्न प्रकार की देखी जाती है। इससे प्रतीत होता है कि किसी बुद्धिमानकर्ता ने सोच-समझ कर भिन्न-भिन्न आकारों में इन्हें बनाया है। जैसे घट, देवकुल और कप आदि भिन्न-भिन्न आकार वाले पदार्थ सीकि न किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा बनाये जाते हैं वैसे ही जगत् का कर्ता कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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