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________________ ( २४ ) आगम-जिज्ञासुओं, आगमवेत्ताओं, शास्त्रज्ञ साधु-साध्वियों, शास्त्रशोधकर्ताओं तथा आगमरसिकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। इस व्याख्या को देख लेने के पश्चात अन्य टीका और नियुक्त देखने की पाठक को आवश्यकता नहीं पड़ेगी । यों तो यह शास्त्रराज बहुत ही दुरूह है, अगर मनोयोगपूर्वक न पढ़ा जाय तो झटपट समझ में आने वाला नहीं है, और न ही इसमें कोई कथा- कहानी है, जिससे उपन्यासकहानी की तरह इसे पढ़ने में शीघ्र दिलचस्पी जगे। परन्तु इतना अवश्य है कि जो भी मुमुक्षुजन इसे रुचिपूर्वक पढ़ेगा, उसे इसमें से अनेक अनुभवरत्न मिलेंगे, आत्मसाधना की अटपटी घाटियों को पार करने में इस शास्त्रराज से बहुत ही मार्गदर्शन मिलेगा, और मिलेगा युक्ति, सूक्ति और अनुभूति का प्रकाश, जिससे प्रत्येक साधक अपनी जीवननैया को विषय-कषायों के तूफानों से; एवं काम, क्रोध, मोह, राग, द्वेष आदि की चट्टानों से टकराने से बचा सके । शास्त्र-सम्पादन एवं प्रकाशन का श्रेय ___ इस शास्त्रराज को इतनी सुन्दर व्याख्या के साथ सम्पादन और प्रकाशन कराने का श्रेय है श्रद्धेय जैन विभूषण भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज को, जिन्होंने व्याख्यासहित इस शास्त्र के सम्पादन की अनवरत प्रेरणा दी और शास्त्र की सुन्दरतम व्याख्या के लिए सतत उत्साहपूर्ण शब्दों में लिखते रहे। इस प्रकार जैनशासन की महती सेवा करके आप महान पुण्योपार्जन कर रहे हैं । आपकी इस श्रु तसेवा से अनेक शास्त्ररसिक, सिद्धान्तजिज्ञासु साधु साध्वियों एवं अन्य महानुभावों को महान् श्रुतज्ञान का लाभ होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। आपकी यह श्रु तसेवा चिरस्थायी होगी तथा आपकी कीर्ति का दिदिगन्त में प्रसारित करेगी। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि इस शास्त्रराज को प्रत्येक आगमरसिक उत्साह और श्रद्धा के साथ पढ़ेगा। __ श्रद्धेय श्री भण्डारीजी महाराज बड़े उदार, सरलचेता एवं गंभीर साधु हैं । पंजाब के लब्धप्रतिष्ठ साधुओं में से आप एक हैं । आपने इससे पूर्व श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र की व्याख्या प्रकाशित करवाई है, इसके अतिरिक्त 'भ० महावीर : सिद्धान्त और उपदेश' का अंग्रेजी में अनुवाद तथा अन्य कतिपय पुस्तकों का गुरुमुखी में अनुवाद कराकर प्रकाशित करवाया है। सचमुच, आप में अद्भुत लगन है, उत्साह है, भगवान महावीर के जीवनोपयोगी सिद्धान्तों को जन-जन में प्रसारित करने का ! इस मिशन को लेकर आपने अपने शिष्य प्रसिद्धप्रवक्ता, वाणीभूषण श्री अमरमुनि के साथ पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि प्रदेशों में सर्वत्र भ्रमण किया है । वयोवृद्ध होते हुए भी आप में युवकों का-सा उत्साह है। शास्त्र सम्पादन की कहानी जब मैं आगरा में था, तब आपका स्नेहानुरोध भरा समाचार प्राप्त हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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