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सहयोग के दो शब्द
वर्तमान में उपलब्ध १९ अंगों में सूत्रकृतांग का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह द्वितीय अंगशास्त्र है | इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं और द्वितीय तस्कन्ध में सात ।
यों देखा जाय तो सूत्रकृतांग दार्शनिक शैली का शास्त्र है, इसलिए प्रारम्भ में अध्येता को जरा दुरूह एवं क्लिष्ट प्रतीत होता है, लेकिन ज्योंज्यों इसके अन्दर वह अवगाहन करता जाता है त्यों-त्यों इस शास्त्र समुद्र में असंख्य मुक्ताफल ज्ञान और दर्शन के रूप में मिलते हैं ।
इस व्याख्या का महत्त्व
यों तो इस शास्त्रराज पर अद्यावधि कई व्याख्याएँ प्रकाशित हो चुकी हैं । इस पर सबसे प्राचीन आचार्य भद्रबाहुस्वामी रचित नियुक्ति है । इसके पश्चात् श्री शीलांकाचार्य की टीका प्रसिद्ध है । इस पर चूर्णि और दीपिका भी मिलती है । इसके अतिरिक्त स्थानकवासी जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज के तत्त्वाव धान में शीलांकाचार्य कृत टीका का पं. अम्बिकादत्तजी ओझा व्याकरणाचार्य द्वारा किया हुआ अनुवाद ४ भागों में प्रकाशित हुआ है । साथ ही जैनाचार्य पं मुनिश्री घासीलाल जी महाराज द्वारा कृत संस्कृत, हिन्दी - गुजराती टीका भी प्रकाशित हुई है । परन्तु इन सब व्याख्याओं के होते हुए भी सूत्रकृतांग की यह व्याख्या कुछ विलक्षण है । इसमें प्रांजल हिन्दी भाषा में व्याख्या इतनी सरस व हृदयस्पर्शी है कि मूल पाठ के शब्दों का पुर्जा -पुर्जा खोलकर रख देती है। एक तरह से मूलपाठ का हृदय खोलकर रख देती है । व्याख्या में किसी प्रकार का साम्प्रदादिक पक्षपात न रखकर समन्वय का दृष्टिकोण रखा गया है । जहाँ कहीं किसी अन्य दर्शन के मत का निराकरण भी मूलानुसार किया गया है, वहाँ उस दर्शन का पूर्वपक्ष भली-भाँति प्रस्तुत करके फिर उसका उत्तरपक्ष सुचारुरूपेण समझाया गया है । इस सूत्रकृतांग- व्याख्या में मूलपाठ, संस्कृत - छाया, शब्दार्थ, अन्वयार्थ और व्याख्या यो ५ विभाग साथ-साथ दिये गये हैं, जिससे पाठक सुगमता से वस्तुतत्त्व को हृदयंगम कर सके ।
शास्त्ररसिकों से
इसलिए यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि व्याख्यासहित यह शास्त्रराज
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