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। २२ ) ही रखी रही । पण्डितजी के प्रिय शिष्य श्री भण्डारीजी महाराज के अन्तर्मन में भावना जगी कि यह विराट शास्त्र आधुनिक शैली से पुनः सम्पादित होकर जनचेतना के समक्ष आए । मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि भण्डारीजी की उक्त मंगल भावना ने आज सुचारु रूप से मूर्त रूप लिया है।
पूर्व प्रकाशित प्रश्नव्याकरणसूत्र के समान सूत्रकृतांग के सम्पादन का यह महान कार्य भी भण्डारीजी के प्रिय शिष्य प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी के द्वारा सम्पन्न हुआ है। श्री अमरमुनिजी प्रस्तुत आगम के व्याख्याकार पं० हेमचन्द्रजी महाराज के प्रशिष्य हैं। वे एक महान कर्मठ, योग्य विचारक एवं जिनशासनरसिक तरुण मुनि हैं । वर्तमान पंजाब जैन श्रमण-संघ में मुनिजी एक महान् यशस्वी प्रवक्ता हैं । उनकी वाणी से सहज ही वह अमृतकल्प रस धारा बरसती है, जो हजारों-हजार श्रोताओं के अन्तर् मन को गहराई से स्पर्श कर जाती है, आनन्द से सराबोर कर देती है । वस्तुतः वे सही अर्थ में प्रवचनभषण हैं । सेवा की तो वे जीवित प्रतिमूर्ति ही हैं । सन् १६६४ के पूज्य गुरुदेव के जयपुर वर्षावास में उनकी अस्वस्थता के समय उन्होंने जो उदात्त सेवा-परिचर्या की है, वह हम सबके स्मृति-कोप की एक अक्षुणनिधि है । वस्तुतः अमरमुनिजी में अपने पूर्व गुरुजनों की संस्कारधारा प्रवाहित है, जो उन्हें यशस्वी बनाती रही है और बनाती रहेगी। इन दिनों में पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है । अत: इस महान कार्य में प्रस्तावना के रूप में मैं अपना योगदान देकर परम प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे आशा है कि भविष्य में भण्डारीजी और अमरमुनिजी आगम प्रकाशन के इस महान कार्य की परम्परा को आगे भी चालू रखेगे । प्रस्तुत सूत्रकृतांग सूत्र के व्याख्याकार की व्याख्या भी सुन्दर है, सम्पादक का सम्पादन भी मधुर है और प्रेरक की प्रेरणा भी प्रशंसा के योग्य है । प्रस्तुत प्रकाशन से आगमाभ्यासी एवं स्वाध्यायप्रेमी भाई-बहन अधिक से अधिक लाभान्वित हों, यही मेरी मंगल भावना है। सुरभित सुमन की सुगन्ध सब ओर मुक्तगति से फैलनी ही चाहिए ।
वीरायतन, राजगृह
अक्षय तृतीया २६ अप्रैल ७६
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