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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
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को चेतावना दे दी है, जो आहार लेने की विधि में दोषों का भंडार अपने जीवन में भरते रहते हैं । दूसरी ओर वे 'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमण:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार घोर तपश्चर्या भी करते हैं, किन्तु आचार- पालन में प्रमाद सेवन करके विविध दुष्ट कर्मों को बाँध लेते हैं । वे ऐसा क्यों करते हैं ? इसका समाधान 'वट्टमाणसुहेसिणो' पदों द्वारा देते हैं । इसका आशय यह है कि जो साधक साधुजीवन अंगीकार करने के बाद थोड़ा-सा कट आने पर सहन नहीं कर सकते, वे सुख-सुविधायें ढूँढ़ते रहते हैं, प्रमादी बन जाते हैं । आहार-विहार की निर्दोष विधियों को जानबूझकर ठुकराते रहते हैं, आहार के उन दोषों का बार-बार सेवन करते हैं । वे केवल वर्तमान क्षणिक सुख को ही देखते हैं, किन्तु भविष्य के महान् दुःख को नहीं देख पातं । उनकी दशा भी पूर्व गाथा में उक्त वैशालिक मत्स्यों की-सी होती है । वे बेचारे आधाकर्मी आदि दोषयुक्त आहार का उपभोग करके उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले कटु दुःखों को भोगते हैं । जैसे—अरहट यंत्र बार-बार कुए में डूबता तैरता रहता है वैसे वे ही संसार सागर में बार-बार डूबते-उतराते रहते हैं । इस प्रकार वे अर्धविदग्ध संसार सागर को अनन्त जन्मों तक पार नहीं कर सकते । यही इस गाथा का तात्पर्य है ।
अब अगली गाथाओं में जगत्कर्ता के बारे में विभिन्न मतों का निदर्शन शास्त्रकार करते हैं—
मूल पाठ
इणमन्न' तु अन्नाणं इहमेगेसिमाहियं । देवउत्त' अयं लोए, बंभउत्तति आवरे ||५||
संस्कृत छाया
इदमन्यत्त्वज्ञानमिहैकेपामाख्यातम् । देवोप्तोऽयं लोकः, ब्रह्मोप्त इत्यपरे ||५||
अन्वयार्थ
( इणं) यह ( अन्नं तु) दूसरा ( अन्नाणं) अज्ञान है | ( इह ) इस लोक में ( एस ) किन्हीं ने (आहियं ) कहा है कि ( अयं ) यह (लोए) लोक (देवउत्त) किसी देव के द्वारा उत्पन्न किया हुआ है । (आवरे ) और दूसरे कहते हैं कि यह लोक (बंभउत्त ति) ब्रह्मा का बनाया हुआ है ।
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