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________________ २०४ सूत्रकृतांग सूत्र भावार्थ पूर्वोक्त अज्ञान के सिवाय दूसरा एक अज्ञान इस लोक में यह भी है कि कई लोग कहते हैं—यह लोक किसी देव के द्वारा बनाया हुआ है, और दूसरे कहते हैं - ब्रह्मा ने इस लोक को बनाया है। व्याख्या लोक की रचना के सम्बन्ध में विभिन्न मत - इस गाथा में इस लोक की रचना किसने की ? इस पर उस युग में प्रचलित विभिन्न मत शास्त्रकार दे रहे हैं। लोक-रचना के विषय में उन विभिन्न मतवादियों की अज्ञानयुक्त मान्यता के प्रति अपना आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं'इणमन्नं तु अन्नाणं' अर्थात् संसार के अन्यान्य अज्ञान तो विचार-आचार सम्बन्धी विभिन्न बातों के सम्बन्ध में प्रचलित हैं ही, कुछ अज्ञानों के नमूने हम पहले बता चुके हैं, किन्तु आश्चर्य है कि यह अज्ञान उन अज्ञानों से अलग किस्म का है, यह बड़ा दिलचस्प और आश्चर्य में डालने वाला है। किस विषय में और कौन-सा अज्ञान हैं ? इस जिज्ञासा के उठने से पहले ही शास्त्रकार समाधान कर देते हैं 'इहमेगेसिमाहिय देवउत्ते ०....'-आशय यह है कि यह अज्ञान इस लोक की रचना के बारे में है, और इस सम्बन्ध में विभिन्न मतवादियों के पृथक-पृथक मत हैं, जबकि वे मतवादी अपन-अपने इष्ट या आराध्य को प्रायः सर्वज्ञ मानते हैं । यही आश्चर्य है। कुछ लोगों का कहना है कि यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला संसार किसी न किसी देव के द्वारा बनाया गया है, क्योंकि मनुष्य में तो इतनी शक्ति नहीं कि इतने विशाल दिदिगन्त व्यापक ब्रह्माण्ड की रचना कर सके। मनुष्य ज्यादा से ज्यादा बनाएगा तो नगर, गाँव, कस्बा, महानगर, प्रान्त या राष्ट्र की रचना कर देगा, किन्तु इतने राष्ट्रों तथा मृष्टि के विभिन्न अद्भुत पदार्थों की रचना करना मनुष्य के बूते से बाहर है। देव चाहे जो कर सकते हैं, वे अपना रूप चाहे जैसा बना सकते हैं। इसलिए 'मियांजी की दौड़ मस्जिद तक' इस कहावत के अनुसार उस युग के लोगों ने देवताओं को शक्तिशाली और कई करिश्मे दिखाकर विस्मय में डालने वाला समझा और जब दूसरे वादियों ने उन तथाकथित ज्ञान के ठेकेदारों से पूछा कि बताओ, 'यह लोक किसने बनाया ?' तो उन्होंने तपाक से कह दिया"कोई ईश्वर तो बनाता दिखाई नहीं देता, और मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं कि वह इतने विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर सके, इसलिए हम तो देवों की शक्ति को प्रत्यक्ष देखते हैं, और उन देवों में से किसी जबरदस्त शक्तिशाली देव ने इसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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