________________
२०२
सूत्रकृतांग सूत्र लहरों के थपेड़े खाकर किनारे पर चले जाते हैं । उस प्रबल तरंग के हटते ही जल से गीले स्थान के सूख जाने पर वे भीमकाय मत्स्य समुद्रतट पर ही पड़े-पड़े तड़पने लगते हैं, उधर मांसलोलुप ढंक-कंक आदि पक्षी तथा मनुष्यों के द्वारा वे मत्स्य जिदे ही नोच-नोच कर फाड़ दिये या काट दिये जाते हैं । रक्षक के अभाव में वे मछलियाँ वहीं तड़प-तड़प कर मर जाती हैं । यही हाल उन आधाकर्मभोजी साधकों का होता है, वे भी घोर कर्मबन्धन के फलस्वरूप नरक या तिर्यञ्चगति में जाते हैं, वहाँ परमाधार्मिक नारकीय असुरों द्वारा तरह-तरह से सताए जाते हैं तथा वहाँ से तिर्यंच गति में आने पर भी अनेक मांसार्थी जीवों द्वारा उनकी बोटी-बोटी उधेड़ दी जाती है।
___ इसी बात को विशेषरूप से द्योतित करने के लिए शास्त्रकार अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव, घात मेस्संति णंतसो ॥४॥
संस्कृत छाया एव तु श्रमणा एके, वर्तमानसुखैषिणः । मत्स्याः वैशालिकाश्चैव, घातमेष्यन्त्यनन्तशः ॥४॥
अन्वयार्थ (एव तु) इस प्रकार (वट्टमाण सुहेसिणो) वर्तमान सुख के अभिलाषी (एगे समणा) कई श्रमण (वेसालिया मच्छा चेव) वैशालिक मत्स्य की तरह (णंतसो) अनन्तबार (घातमेस्संति) घात को प्राप्त होंगे ।
भावार्थ इसी तरह (पूर्वोक्त प्रकार के) केवल वर्तमानकालिक सुख में ही रचे-पचे रहने वाले कई तथाकथित आचारभ्रष्ट श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्तबार मरकर ससारचक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं।
व्याख्या
सुखशील आचारहीन श्रमणों की दुर्दशा इस गाथा में 'एगे समणा' कहकर शास्त्रकार ने उन तथाकथित बौद्ध, आजीवक, पाशुपत आदि पर-तीथिक श्रमणों या स्वतीथिक भी वैसे सुख शील उन श्रमणां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org