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________________ समय : प्रथम अध्ययन - तृतीय उद्देशक २०१ ( अकोविया ते) अनिपुण वे अन्यतीर्थी परमतवादी आधाकर्मी आहार-सेवी साधक ( दुही) उसी प्रकार दुःखी होते हैं, (वेसालिया मच्छा चेव ) जैसे -- वैशाली जाति के मत्स्य (उदगस्सऽभियाग से) जल की बाढ़ आने पर होते हैं । ( उदगस्स ) जल के ( पभावेण ) प्रभाव से ( सुक्कं सिग्धं) सूखे तथा गीले स्थान को ( तमिति उ ) प्राप्त करके जैसे वैशालिक मत्स्य (आमित्थे हि ) मांसार्थी (ढकेहि केहि ) ढंक और कंक पक्षियों द्वारा (दुही) दु:खी होते हैं, सताये जाते हैं । ( उसी तरह आधाकर्मी आहार सेवनकर्ता साधक दुःखी होते हैं । ) भावार्थ आधाकर्म आदि आहार के दोषों को नहीं जानने वाले और चतुर्गतिक संसार अथवा अष्टविधकर्म के ज्ञान में अकुशल आधाकर्मभोजी साधक उसी प्रकार दुःखी होते हैं, जिस प्रकार जल की बाढ़ आने पर जल के प्रभाव से सूखे और गीले स्थान में पहुँची हुई विशालजातीय मछलियाँ मांसार्थी ढंक एवं कंक पक्षियों द्वारा दुःखी की जाती हैं - सताई जाती हैं । व्याख्या आधाकर्म आहारभोजी अत्यन्त दुःख के भागी इन दोनों गाथाओं में कर्मबन्धन के कारणों और विषम चतुर्गतिक संसारभ्रमण के कारणों को समझने में अकुशल लोग किस प्रकार अन्त में दु:खी होते हैं ? यह बात दृष्टान्त देकर समझाई गई है । तमेव अवियाणंता--- इस पंक्ति का आशय यह है कि जो साधक अपने मत या धर्म सम्प्रदाय के ग्रन्थों या गुरुओं से आधाकर्म आदि आहार के उपभोगजनित दोषों के प्रति बिलकुल अनभिज्ञ एवं लापरवाह होकर चलते हैं, वे बेखटके ऐसे दोषयुक्त आहार का बराबर सेवन करते हैं । वे इस कटु एवं अष्ट प्रकार के कर्मबन्धन के रहस्यों-- कारण निवारणों को या संसार परिभ्रमण के मूल कारणों को समझने में या उन पर ऊहापोह करने में अकुशल हैं । वे यह नहीं समझते कि कैसे ये विविध कर्मबन्धन हो जाते हैं ? कैसे इन कर्मबन्धनों से मुक्ति हो सकती है ? अथवा इस संसार सागर को कैसे पार किया जा सकता है ? इन सब रहस्यों को जानने में वे बिलकुल मूढ़, अकुशल और बेखबर हैं । ऐसे साधक इसी संसार सागर में कर्मबन्धनों में जकड़ कर दुःखी होते रहते हैं । इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं- जैसे विशाल समुद्र में होने वाले वैशालिक मत्स्य अथवा विशालकाय मच्छ या विशाल जाति में उत्पन्न महामत्स्य 'समुद्र में तूफान आने पर, तूफानी हवाओं से टकराती हुई ऊँची-ऊँची उछलती हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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