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________________ २०० सूत्रकृतांग सूत्र अर्थ तो ऊपर दिया जा चुका है कि वह आधाकर्मी आहार का उपभोक्ता साधु, साधु और गृहस्थ दोनों पक्षों का (दोष) सेवन करता है । दूसरा अर्थ यह है कि वह ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी दोनों क्रियापक्षों का सेवन करता है । आहार लाते समय ऐर्यापथिकी क्रिया तो लगती है, किन्तु उस दोषयुक्त आहार का सेवन करने में माया और लोभ दोनों कषायों के कारण साम्पafrat क्रियापक्ष का भी सेवन कर लेता है । तीसरा अर्थ यह है कि ऐसा दोषयुक्त आहार सेवन करने से पहले बाँधी हुई कर्मप्रकृतियों को निद्धत्त, निकाचित आदि गाढ़रूप स्थिति में पहुँचा देता है और फिर नवीन कर्मप्रकृतियाँ बाँध लेता है । यों वह दोहरा पाप सेवन करता है । इससे एक बात और फलित होती है कि श्रद्धालु गृहस्थ द्वारा निर्मित सदोष आहार का एक कण भी जब हजारों घरों के अन्तर से खाने वाला साधक दोहरे दोष का भागी बन जाता है, तब जो शाक्यभिक्षु, संन्यासी आदि सारा आहार स्वयं तैयार करके खाते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ? वे तो कभी भी इस दोहरे दोष से छुटकारा नहीं पा सकते । आहार के दोषों को न जानकर जो सुखशील साधक दोषयुक्त आहार का सेवन करते हैं, उसका कटुफल दृष्टान्त द्वारा दो गाथाओं से शास्त्रकार समझाते हैं मूल पाठ तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छावेसालिया चेव, उदगस्सऽभियागमे ॥२॥ उदगस्स पभावेण, सुक्कं सिग्घं तमिति उ । ढकेहि य केहि य, आमिसह ते दुही || ३ || संस्कृत छाया 1 तमेवाविजानन्तो विषमेऽकोविदाः मत्स्याः वैशालिकाश्चैवोदकस्याभ्यागमे ॥२॥ उदकस्य प्रभावेण शुष्कं स्निग्धं तमेत्यतु । ढकैश्च ककैश्चामिषार्थिभिस्ते दुःखिनः ॥ ३॥ अन्वयार्थ ( तमेव) उस आधाकर्म आदि आहार के दोषों को (अवियागंता) नहीं जानते हुए ( सिमंति) तथा अष्टविधकर्म के ज्ञान में अथवा विषम संसार के ज्ञान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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