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समय : प्रथम अध्ययन-तृतीय उद्देशक
अणुपरियट्टइ ।' अर्थात्- "भगवन् ! जो श्रमण निर्ग्रन्थ आधाकर्म आहार का सेवन करता है, वह कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधता है; कितने कर्मों का चय, उपचय करता है ? गौतम ! आधाकर्मी आहारकर्ता आयुष्य को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियाँ जो शिथिल बँधी हुई थीं, उन्हें सघन (बने) कर्मों के बन्धन से बद्ध कर लेता है, कर्मों का चय उपचय करता है, दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है।"
प्रश्न होता है, आहार आधाकर्मी (दोष-दषित) कब होता है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते ---'सड्ढोमागंतुमीहियं' जब कोई श्रद्धावान् भक्त किसी स्वार्थ, लोभ या अपनी प्रतिष्ठा के लिए अथवा भक्त कहलाने या पुण्यवृद्धि के हेतु किन्हीं खास आगन्तुक साधुओं के निमित्त से आहार तैयार करता है, तब साधु को समझ लेना चाहिए कि यह आहार आधाकर्म दोष से अपवित्र है। किन्तु जो साधु पूर्वोक्त आगमसूचित घोर कर्मबन्धन रूप परिणाम को न जानकर अथवा स्वादलोलुपतावश या श्रद्धालु भक्त की अन्धभक्ति के प्रवाह में बहकर जानबूझकर उस आहार को ग्रहण कर लेता है, इतना ही नहीं, उसका उपभोग भी कर लेता है तो वह साधक आधाकर्मी दोष का सेवन करता है ।
यहाँ यह शंका होती है कि मान लो, साधु आहार के उक्त आधाकर्म दोष को छिपाने और अपने गुरु या बड़े साधुओं की दृष्टि से बचाने के लिए उक्त दोषयुक्त आहार लेकर कई घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर उसके साथ मिला देता है ताकि किसी को पता न लगे या शंका न हो कि यह आधाकर्मी आहार है । इस प्रकार उस आहार को लेकर वह अपने उपाश्रय में आकर सेवन करता है, क्या तब भी वह आहार (अनेक घरों में घूमकर उसके साथ दूसरा आहार मिलाने पर भी) दोषयक्त रह जाता है ? शास्त्रकार कहते हैं-'सहस्संतरियं भुंजे दुपक्खं चेव सेवइ' अर्थात् वह आहार चाहे हजार घर का व्यवधान देकर भी सेवन किया जाय, तब भी उक्त दोष से मुक्त नहीं होता, प्रत्युत स्वपक्ष में तो उस आधाकर्मी सेवन का दोष लगता ही है, गृहस्थपक्ष के दोष का भागी भी वह होता है। क्योंकि यदि वह साधक गृहस्थ के यहाँ उस आहार की गवेषणा करता, और आधाकर्मी जानकर उसे ग्रहण न करता तो गृहस्थ भविष्य में उस दोष से सावधान हो (बच) जाता । किन्तु उस सदोष आहार को ग्रहण कर लेने से गृहस्थ भविष्य में बार-बार उक्त दोष साधु के लिए लगाएगा। अतः भविष्य में दोष-परम्परावर्द्धक होने से वह साधक' गृहस्थपक्ष के दोष का भी समर्थक हो जाता है। यह इस गाथा का रहस्य है ।
दुपक्खं चेव सेवइ-यहाँ 'दुपक्ख' (द्विपक्ष) के तीन अर्थ होते हैं- पहला
१. भगवती सूत्र, श० ७, उ० ६, सू० ७८
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