________________
१६८
सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (जं किंचि उ) जो आहार थोड़ा-सा भी (पूइकड) आधाकर्म आदि आहारदोष दूषित या मिश्रित----अपवित्र है, (सड्ढीं) श्रद्धालु गृहस्थ ने (आगंतुमीहियं) आगन्तुक (आने वाले) मुनियों, बौद्धभिक्षुओं या श्रमणों के लिए तैयार किया है। (सहस्संतरियं) उस दोषयुक्त आहार को जो साधक हजार घर का अन्तर देकर भी (भुंजे) खाता है, (दुपक्खं चेव सेवइ) वह गृहस्थ और साधु दोनों के पक्षों का (दोष) सेवन करता है।
भावार्थ जो आहार आधाकर्मी आदि दोषयुक्त आहार के कण से (जरा-से दाने से) भी अपवित्र है और श्रद्धालु गृहस्थ द्वारा अत्यन्त श्रद्धावश आने वाले मुनियों के लिए बनाया गया है, उस आहार को जो साधक एक घर से दूसरे, दूसरे से तीसरे, यों हजार घर का अन्तर देकर भी खाता है, वह साधु और गृहस्थ दोनों पक्षों का (दोष) सेवन करता है।
व्याख्या
दोषदूषित आहारसेवन : द्विपक्ष दोषसेवन
इस गाथा में शास्त्रकार ने उस आचार की ओर संकेत किया है, जिसकी मर्यादा भंग करने से साधक को उभयपक्षीय दोष से लिप्त होकर उक्त प्रमाद के फलस्वरूप घोर कर्मबन्ध का भागी होना पड़ता है। साधकों की आहार-विहार सम्बन्धी सभी मर्यादाएँ अहिंसा पर आधारित हैं। साधु के स्वयं आहार पकाने, दूसरों से पकवाने और आहार पकाने का अनुमोदन (समर्थन) करने का त्याग होता है, क्योंकि इसमें अहिंसा सम्बन्धी मर्यादा भंग होती है। आहार पकाने में सचित्त जल, वनस्पति, अग्नि, वायु और पृथ्वीकाय इन एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा के अतिरिक्त अग्नि में त्रसजीवों की भी प्राय: हिंसा हो जाती है। इसीलिए आधाकर्म आदि आहार सम्बन्धी दोषों की गवेषणा करने का साधु के लिए विधान है कि वह जिस आहार को ले रहा है, वह किसी भी प्रकार के दोष से दूषित-अपवित्र तो नहीं है ? यहाँ शास्त्रकार ने 'पूइकडं' विशेषण आहार के लिए लगाया है। उसका आशय है---- दोष से दूषित किया हुआ आहार । क्योंकि दोषयुक्त (आधाकर्मी) आहार सेवन करने का परिणाम आगम में घोर कर्मबन्ध बताया है--'आहाकम्मं गं भुजमाणे समणे निग्गंथे कि बंधइ, कि पकरेइ, किं चिणाइ, कि उपचिणाइ ? गोषमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ घणियबंधणबद्धाओ पकरेइ० जाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org