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प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक
पर समयवक्तव्यता : आचारदोष यहाँ से प्रथम अध्ययन का तीसरा उद्देशक प्रारम्भ हो रहा है। पहले के दो उद्देशकों में भी है तो स्वसमय-परसमयवक्तव्यता का अधिकार, किन्तु इन पूर्वोक्त दो उद्देशकों में मिथ्यादृष्टि परमतवादियों की विचारधारा बताकर उनके वैचारिक दोषों का दिग्दर्शन कराया गया है। अब इस उद्देशक में उनकी आचार-प्रणाली बता कर उनमें निहित आचार सम्बन्धी दोषों का दिग्दर्शन किया गया है।
इस उद्देशक का पूर्व दो उद्देशकों के साथ सम्बन्ध यह है कि प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में 'बन्धनों को जानकर (बुज्झिज्जत्ति) तोड़ने की बात कही गई है। वे कर्मबन्धन के कारण मुख्यत: मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं। पूर्वोक्त दो उद्देशकों में मुख्यरूप से अन्यदर्शनों एवं मतों को मिथ्यात्व-दोष दूषित बताकर उसके फलस्वरूप होने वाले कर्मबन्धनों को जानने की अव्यक्त रूप से प्रेरणा दी गई है, अब इस तृतीय उद्देशक में आचार-दोष के कारण अविरति और प्रमाद से होने वाले कर्मबन्धन को जानने की अव्यक्त प्रेरणा दी गई है। साथ ही शुद्ध आचार, जो बन्धन तोड़ने का उपाय है, उसका भी बोध प्राप्त करना चाहिए, यह संकेत भी है।
अत: शास्त्रकार सर्वप्रथम कर्मबन्धन के कारण भूत एवं श्रमणों, बौद्ध भिक्षुओं एवं निर्ग्रन्थों के लिए असेव्य आधाकर्मी आहार-सेवन में दोष और उसका परिणाम बताते हैं
मूल पाठ जं किंचि उ पूइकडं, सड्ढीमागंतुमीहियं । सहस्संत रियं भुजे, दुपक्खं चेव सेवइ ॥१॥
संस्कृत छाया यत्किञ्चित्पूतिकृतं श्रद्धावताऽऽगन्तुकेभ्य ईहितं । सहस्रान्तरितं भुजीत द्विपक्षञ्चैव सेवते ॥१॥
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