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सूत्रकृतांग सूत्र
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कर पाते और अध-बीच में ही संसार-सागर में डूब कर बार-बार जन्म-मरण रूप चतुर्गतिक संसार में ही भटकते रहते हैं । इस संसार में बार-बार जन्म-मरण और दुर्गति आदि दुखों को भोगते हुए घोर मिथ्यात्व के कारण अनन्तकाल तक इसी में दौड़-धूप करते रहते हैं । परन्तु मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते, न ही मोक्ष के द्वाररूप सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर पाते हैं । यह इस गाथा का आशय है ।
गणधर सुधर्मास्वामी इस द्वितीय उद्दे शक का उपसंहार करते हुए कहते हैं - ति बेमि
इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
पढमज्झणे बीओ उद्दसो सम्मत्तौ ।
इस प्रकार सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का द्वितीय उद्देशक 'अमरसुखबोधिनी' व्याख्या सहित पूर्ण हुआ ।
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