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समय : प्रथम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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अब क्या था ! वे तो संसार-समुद्र से पार होने की आशा से मतरूपी नौका में बैठे लेकिन वह नौका इतनी पोच निकली कि अध-बीच में ही अनेक अशुभ आस्रवों (पापों) के जल से भर गई । इस प्रकार उन्हें वह मतरूपी नौका ले डूबी। वे इस जीवन से भी नष्ट हुए और अगले जीवन से भी। इस जीवन में भी मत के चक्कर में पड़कर भी धर्माचरण न कर सके, यह जीवन तो बिगड़ा ही अगला जीवन भी बिगड़ गया। पर अब पछताने से क्या होता। अब तो जिन्दगी का अन्त निकट आ लगा। अब भी चेतने का अवसर तो था लेकिन मताग्रह एवं मिथ्यात्व का अन्धापन कुछ भी करने और सोचने ही कहाँ देता है ? अब इस द्वितीय उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहते हैं----
मूल पाठ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियटति ॥३२॥
___ संस्कृत छाया एवं तु श्रमणा एके, मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । संसारपारकांक्षिणस्ते, संसारमनुपर्यटन्ति ॥३२।।
अन्वयार्थ (एवं तु) इस प्रकार (एगे) कई (मिच्छविट्ठी) मिथ्यादृष्टि (अणारिया समणा) अनार्यश्रमण (संसारमारकंखी) संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं, लेकिन (ते) वे (संसार) संसार में ही (अणुपरियति ) बार-बार पर्यटन करते रहते हैं ।
भावार्थ इस प्रकार कई मिथ्यादृष्टि अनार्य तथाकथित श्रमण संसार-सागर पार करना चाहते हैं लेकिन वे संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं।
व्याख्या
तथाकथित मिथ्यात्वी श्रमणों की दशा जैसे जन्मान्ध पुरुष सछिद्र नौका पर चढ़कर नदी पार नहीं कर सकता, वैसे ही विपरीत दृष्टि वाले मिथ्यात्वान्ध मतमोहान्ध कई मांसाहार, मद्यपान आदि विविध हेय कर्मों (पापों) में स्वयं लिप्त अथवा उन पापों के समर्थक अनार्य श्रमण परिव्राजक आदि अपने-अपने दर्शन रूपी नौका के सहारे ससार-सागर को पार करना चाहते हैं, परन्तु मिथ्यात्व की रतौंधी के कारण वे संसार-सागर को पार नहीं
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