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सूत्रकृतांग सूत्र
इस प्रकार का चित्त का परिणाम असंक्लिष्ट नहीं होता, यह कौन मान सकता है ? चित्त की क्लिष्टता से कर्मबन्ध होता है, इसमें आप और हम दोनों एकमत हैं । अत: पुत्रघाती पिता को पापरहित बताना असंगत है। बौद्धों ने कहीं यह भी कहा था---'जैसे दूसरे के हाथ से अंगारा पकड़ने पर हाथ नहीं जलता, वैसे ही दूसरे के द्वारा मारे हुए जीव के मांस खाने में पाप नहीं होता,' यह भी उन्मत्तप्रलाप के समान है, क्योंकि दूसरे के द्वारा मारे हुए प्राणी का मांस खाने में भी अनुमति अवश्य होती है। अनुमति होने पर कर्मबन्ध अवश्य होता है। आपने भी कर्म के तीन आदानों में एक आदान अनुज्ञा (अनुमति) को माना ही है। अन्य मत वालों ने भी कहा है
अनुमन्ता विशसिता संहर्ता क्रयविक्रयो ।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च घातकश्चाष्टघातकाः ॥ मांस खाने का अनुमोदन करने वाला, पशुवध करके उसके अंगों को काट कर अलग-अलग करने वाला, पशु को मारने के लिए कत्लखाने में ले जाने वाला तथा पशु को मारने के लिए उसे खरीदने या बेचने वाला, अथवा मांस खरीदनेबेचने वाला, पशु का मांस पकाने वाला, खानेवाला और मारने वाला ये आठों ही घातक (हिंसक) हैं । ये आठों ही पशुधात के पाप के भागी हैं। बौद्धों ने भी तो जीवहिंसा करने, कराने और अनुमति देने में पाप होना बताया है। यह तो हमारे ही मत का आपने समर्थन किया है। तब आपका यह कथन कि 'चार प्रकार के कर्म उपचय (बन्ध) को प्राप्त नहीं होते,' बिलकुल असंगत है। इसीलिए तो आप पर यह आक्षेप है कि आप कर्म की चिन्ता से रहित हैं। शास्त्रकार ने ठीक ही कहा है-ण ते संवुडचारिणो ।' अर्थात् वे लोग संवृत होकर फूंक-फूंककर नहीं चलते, संयम के विचार से प्रवृत्त नहीं होते।
___ अब अगली गाथा में पूर्वोक्त विविध दार्शनिकों की मिथ्यात्वयुक्त दृष्टि और उसके कारण किये जाने वाले अकार्य का निरूपण करते हैं
मूल पाठ इच्चेयाहि य दिट्ठीहिं, सातागारवणिस्सिया । संरणं ति मन्नमाणा, सेवंती पावगं जणा ॥३०॥
संस्कृत छाया इत्येताभिश्च दृष्टिभिः सातगौरवनिश्रिताः । शरणमिति मन्यमानाः सेवन्ते पापकं जनाः ॥३०॥
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