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________________ समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक १९३ अन्वयार्थ (इच्चेयाहि) इन पूर्वोक्त (दिट्ठीह) दृष्टियों को लेकर (सातागारवणिस्सिया) सुखोपभोग तथा मान-बड़ाई में आसक्त विभिन्न दर्शन वाले (जणा) लोग (सरणंति) अपने-अपने दर्शन को अपना-अपना शरण (आधारभूत) (मन्नमाणा) मानते हुए बेखटके (पावर्ग) पाप का (सेवंति) सेवन करते हैं। भावार्थ अब तक बताई हुई इन भिन्न-भिन्न दृष्टियों (विचारधाराओं) को तेकर इन्द्रिय-सुखों के उपभोग में तथा बड़प्पन में आसक्त विभिन्न दर्शनों वाले लोग अपने-अपने दर्शन को अपना शरण (रक्षक) मानकर बेखटके पापकर्म का सेवन करते हैं। व्याख्या विभिन्न मतवादियों द्वारा निःशंक पाप-सेवन इच्चेयाहि य दिट्ठीहिं' . इस गाथा में शास्त्रकार ने, विभिन्न दार्शनिक और मतवादियों की दृष्टियाँ अस्पष्ट और विपरीत होने के कारण वे किस प्रकार अपने जीवन में स्वच्छन्द हो जाते हैं, यह बताया गया है । आशय यह है कि जब किसी व्यक्ति की दृष्टि विचारधारा) सबल , सम्यक् एवं अभ्रान्त नहीं होती है, तब उसका आचरण भी विपरीत दिशा में होगा, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। इससे तो अब इन्कार नहीं किया जा सकता कि पूर्वगाथाओं में बताये हुए विभिन्न मतवादियों की दृष्टियाँ कितनी एकान्त एवं भ्रान्त हैं ? अत: वे लोग अपने-अपने दर्शन एवं मत के अनुसार प्रायः निःशंक होकर ऐश-आराम, आमोद-प्रमोद एवं सम्मान-प्रतिष्ठा के चक्कर में पड़ जाते हैं, और यह सोचकर बेखटके पाप-कर्म करते रहते हैं कि क्या चिन्ता है हमें ! हमने तो अपने दर्शन एवं मत का पल्ला पकड़ लिया है, वही हमें संसार-सागर से पार करने के लिए उत्तम नौका है। उसी की छत्रछाया में हमें मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। अभी तो बेधड़क हिंसा आदि कर लें। एक दिन हमारा मत हमें अवश्य ही नरक से बचा लेगा। इस प्रकार की भ्रान्ति के शिकार होकर वे दर्शनिक बेखटके पापाचरण करते हैं। अब शास्त्रकार विभिन्न दार्शनिकों की अन्धता एवं छिद्रयुक्त नौका में बैठकर संसार-सागर को पार करने की चेष्टा को बताते हुए कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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