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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्दे शक
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अर्थात् — हे मति के धनी मन ! तुम्हें नमस्कार है । यद्यपि संसार में तुम्हारे लिये सभी पुरुष समान हैं, तथापि तुम किसी पुरुष में शुभ अंशों में और किसी में अशुभ अंशों में परिणत होते हो । यही कारण है कि कई लोग परिणामों के अशुभांश के कारण नरकमार्गगामी बनकर कष्ट उठाते हैं तो कई शुभांश की शक्ति पाकर सूर्यभेदी मोक्षगामी बन जाते हैं ।
इस प्रकार बौद्धों के मन्तव्यानुसार क्लिष्ट मनोव्यापार पाप कर्मबन्धन का कारण सिद्ध होता है ।
ईर्यापथ में भी उपयोग रखकर नहीं चलना ही तो चित्त की क्लिष्टता है । अतः उससे भी कर्मबन्ध होता ही है । हाँ, यदि कोई साधक उपयोग रखकर गमन करता है, उनके मन में किसी भी जीव को मारने की भावना नहीं है, प्रमादरहितसावधानी से चर्या करता है तो वहाँ उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता है । यह तो जैन सिद्धान्त में भी कहा है
उच्चालयम्मि पाए इरियासमियस्त संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरेज्ज तं जोगमासज्ज ॥
र्णय तस्स तन्निमित्तो बन्धो सुहुमोऽवि देसिओ समए । अणवज्जो उपयोगेण सव्वभावेण सो जम्हा ॥
अर्थात् - ईय्र्यासमिति से युक्त साधक भूमि पर कदम रखने के लिए जब अपना पैर उठाता है, तब उसके पैर के नीचे आकर यदि कोई सूक्ष्मजीव मर जाये तो उसे उस निमित्त से जरा भी पाप कर्मबन्ध नहीं होता, यह (जैन) सिद्धान्त में कहा है । क्योंकि वह पुरुष सब तरह से जीवरक्षा में उपयोग रखने के कारण पाप रहित (अनवद्य) है |
चित्त क्लिष्ट होता है, तभी स्वप्न में किसी को मारने का उपक्रम होता है | इसलिए स्वप्नान्तिक में भी चित्त अशुद्ध होने के कारण कुछ न कुछ कर्मबन्ध होता ही है । आपने भी तो स्वप्नान्तिक में 'अव्यक्तं तत्सावद्यम्' कहकर अव्यक्त पाप का होना स्वीकार किया है। अतः जब आपने यह मान लिया कि क्लिष्ट मनोव्यापार होने पर कर्मबन्ध होता है, तब 'प्राणी प्राणज्ञान आदि पाँच बातों से ही हिंसा होती है' यह कथन असंगत सिद्ध हो जाता है । आपने जो दृष्टान्त देकर बताया कि राग-द्वेष से रहित पिता विपत्ति के समय पुत्र को मार कर खा जाये, तब भी कर्मबन्धन नहीं करता, यह कथन भी विचारशून्य है । क्योंकि राग-द्व ेष के बिना मारने का परिणाम हो ही कैसे सकता है ? जब तक किसी के चित्त में 'मैं मारता हूँ' ऐसा परिणाम नहीं होता, तब तक कोई मारता नहीं है । और 'मैं मारता हू"
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