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समय : प्रथम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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बुद्धि मत-पक्षपात से रहित है, जो मध्यस्थभाव से अपनी बुद्धि का सन्तुलन रख कर उपयोग करता है, उस समझदार की बुद्धि तो जिस पदार्थ को युक्तियाँ जिस रूप से सिद्ध करती हैं, उसको उसी रूप से मानने के लिये सदा प्रस्तुत रहती है। उसका सिद्धान्त होता है-जो सत्य सिद्ध हो, वह मेरा है। युक्तिसिद्ध वस्तु को पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त होकर स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिये।
किन्तु थोथा पाण्डित्य प्रदर्शित करने वाले मताग्रही इस बात को कब मानने को तैयार होंगे ? वे तो अपनी मानी हुई घिसी-पिटी पुरानी युक्ति-विरुद्ध लकीर पर ही चलने का आग्रह रखते हैं । यही उनके एकान्तवादरूप मिथ्यात्व का नमूना है। जिसके फलस्वरूप वे तीव्ररागद्वेषवश घोर कर्मबन्धन करके जन्म-मरण-रूप संसार में ही चक्कर काटते रहते हैं। इसी बात को शास्त्रकार ने सूचित किया है'संसारं ते विउस्सिया ।'
__ अगली गाथा में परसमय-वक्तव्य के सन्दर्भ में शास्त्रकार क्रियावादियों के मत का निदर्शन करते हैं----
मूल पाठ अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं । कम्मचिंतापणट्ठाणं, संसारस्स पवड्ढणं ॥२४॥
संस्कृत छाया अथाऽपरं पुराऽऽख्यातं, क्रियावादिदर्शनम् । कर्मचिन्ताप्रनष्टानां, संसारस्य प्रवर्धनम् ।।२४।।
अन्वयार्थ (अह) इसके पश्चात् (अवरं) दूसरा (पुरक्खायं) पूर्वोक्त-पहले कहे हुए (किरियावाइदरिसणं) एकान्तक्रियावादियों का दर्शन है। (कम्मचितापणट्ठाणं) कर्म (कर्मबन्ध) की चिन्ता से रहित, उन एकान्त क्रियावादियों का दर्शन (संसारस्स) जन्म-मरण-रूप संसार की (पवड्ढणं) वृद्धि करने वाला है ।
भावार्थ अब दूसरा दर्शन पहले बताये हुए एकान्तक्रियावादियों का है। कर्म (कर्मबन्धन) की चिन्ता से रहित उन क्रियावादियों का दर्शन संसार की वृद्धि ही करने वाला है।
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