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________________ १८२ सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्या कर्मचिन्ता के प्रति लापरवाह : एकान्त-क्रियावादी दर्शन किरियावाइदरिसणं-- अज्ञानवादियों के मत निरूपण के पश्चात् अब शास्त्रकार उन एकान्त-क्रियावादियों के दर्शन की चर्चा छेड़ रहे हैं, जिसका जिक्र नियुक्तिकार ने इस उद्देशक के अधिकार में किया था। इसलिये इस नये विषय को प्रारम्भ करने हेतु शास्त्रकार ने 'अहावरम्' शब्द प्रयोग किया है, इसका अर्थ होता हैअज्ञानवादियों के मत का निरूपण करने के बाद अब दूसरा पूर्वकथित क्रियावादीदर्शन है । चैत्य-कर्म आदि क्रिया को ही जो लोग प्रधानरूप से मोक्ष का अंग बतलाते हैं, उनके दर्शन (विचारधारा) को क्रियावादी-दर्शन कहते हैं । कम्मचिन्तापणट्ठाणं-त्रियावादीदर्शन का क्या स्वरूप है ? क्या लक्षण है ? इसे शास्त्रकार अपनी भाषा में बताते हैं कि वे एकान्त-क्रियावादी वर्मों की चिन्ता से प्रनष्ट यानी दूर रहते हैं । ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म कैसे, किन-किन कारणों से किस-किस तीव्र-मन्द आदि रूप में आत्मा के बँध जाते हैं, वे सुख-दुःख आदि के जनक हैं या नहीं ? उनसे छूटने का उपाय क्या है ? आदि कर्म-सम्बन्धी विचार करना कर्मचिन्ता कहलाती है। एकान्त-क्रियावादी इसप्रकार की कर्मचिन्ता से रहित-- लापरवाह होते हैं। ऐसे एकान्त-क्रियावादी बौद्ध दार्शनिक हैं, जो अज्ञान आदि से उपचित (किये हुए) चार प्रकार के कर्मों को बन्धनरूप नहीं मानते। इस प्रकार कर्मबन्धन का विचार करने की वे अपेक्षा नहीं करते । इसीलिये उन्हें 'कर्मचिन्ताप्रनष्ट' कहा है। 'संसारस्स पवड्ढणं'--'चार प्रकार का कर्म बन्धकारक नहीं होता' उक्त क्रियावादियों का यह मत संसार को बढ़ाने वाला ही होता है, घटाने वाला नहीं, क्योंकि वे एकान्तरूप से इस बात को मानते हैं, मताग्रह रखते हैं, दूसरे की सच्ची युक्तियों को ठुकरा देते हैं, इस प्रकार मिथ्यात्व से ग्रस्त होने या प्रमाद (कर्मचिन्तन के विषय में उपेक्षाभाव) से युक्त होने के कारण वे घोर कर्मबन्धन के फलस्वरूप अपने संसार की वृद्धि करते हैं । 'संसारस्स पवड्ढणं' के बदले कहीं-कहीं 'दुक्खखंधपवड्ढणं' पाठ मिलता है । उसका अर्थ होता है, उन क्रियावादियों का यह दर्शन दुःखस्कन्ध यानी असातोदयरूप दुःखपरम्परा को बढ़ाने वाला है। वे क्रियावादी कर्म-चिन्ता से किसप्रकार रहित हैं ? इसे शास्त्रकार अगली गाथा में बताते हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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