SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० सूत्रकृतांग सूत्र उधेड़ते रहते हैं, उनकी निन्दा और भर्त्सना किया करते हैं, उन-उन परमतों के वचनों को उद्ध त करके वे उनकी मजाक उड़ाया करते हैं। इस प्रकार उनके मन मस्तिष्क की खुजली तब तक शान्त नहीं होती, जब तक वे निन्दापुराण न पढ़ लें। इसीलिए शास्त्रकार ने ऐसे अज्ञानवादी लोगों की इस प्रकार की स्वमत-मोहचेष्टाओं को ही मिथ्यात्वरूपी विषवृक्ष का मूल कहा है, जो एकान्तवाद का जल सींचने से मजबूत होता है । इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है.---'सयं सयं पसंसंता ...।' आशय यह है कि उन मतवादियों का मतमोहरूप मिथ्यात्व उन्हें चैन से बैठने नहीं देता । वह युग शास्त्रार्थ का युग था। मतमोह की मदिरा पीकर विभिन्न मतों के पण्डित लोग साँड़ों की तरह परस्पर लड़ते थे, वाकयुद्ध करते थे। शास्त्रार्थ का अखाड़ा जमता था । मतमल्ल अपने-अपने दाँव-पेंच लगाते थे । सांख्य दर्शन के पण्डित समस्त वस्तुएँ आविर्भूत-तिरोभूत होती रहती हैं, किसी भी वस्तु का सर्वथा नाश नहीं होता,' इस प्रकार एकान्त मताग्रह से ग्रस्त होकर 'सभी पदार्थ क्षणिक हैं और निरन्वय विनाशी हैं, इस प्रकार के क्षणिकवादी बौद्धों पर आक्षेप करते थे, उनके मत में दोष बताते थे और क्षणिकवादी बौद्ध पण्डित भी 'नित्य पदार्थ न तो क्रमश: अर्थक्रिया कर सकता है और न ही युगपत् करता है, इत्यादि दोष देकर सांख्यवादियों की भर्त्सना करते थे। इसी तरह दूसरे दार्शनिक भी परस्पर एक-दूसरे के वचनों की निन्दा और स्वप्रशंसा करते थे। 'जे उ तत्थ विउस्संति'... ' इस पंक्ति में शास्त्रकार ने उन सबको एकान्त मताग्रहवादी बताकर उनके इस व्यवहार को विजिगीषवत्ति बताया है, न कि जिज्ञासुवृत्ति । यानी वे केवल अपना पाण्डित्य-प्रदर्शन करने के लिये ऐसा करते थे, एक-दूसरे का मत जिज्ञासाबुद्धि से समझने के लिये नहीं। वे मताग्रही बनकर अपनेअपने सिद्धान्त के पक्ष में विशिष्ट युक्तियाँ प्रस्तुत करते थे। जैसा कि समदर्शी आचार्य हरिभद्र ने कहा है---- 'आग्रही वत निनीषति युक्ति यत्र तत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ।। जो दुराग्रही है, साम्प्रदायिक आग्रह से जिसकी बुद्धि विकृत हो रही है उसकी बुद्धि ने जिस पदार्थ को जिस रूप से ग्रहण कर रखा है. वहीं वह युक्तियों की यद्वातद्वा खींचतान करता है । उसका मूलमंत्र होता है-'जो मेरा है या मैंने जानामाना है, वही अन्तिम सत्य है।' इसलिए वह सत्य का पुजारी नहीं होता, वह अपने मतीय अहंकार का पुजारी होता है । इसलिए वह युक्तियों की खींचतान करके जैसेतैसे अपने मत को सच्चा सिद्ध करने का अनुचित प्रयत्न करता है। लेकिन जिसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy