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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
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अब पूर्व गाथाओं में जिन-जिन एकान्तवादियों के मतों का निरूपण किया था, उनके मतों में शास्त्रकार मिथ्यात्व, मिथ्याग्रह आदि दूषण बताते हैं
मूल पाठ
सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २३ ॥
संस्कृत छाया
स्वकं स्वकं प्रशंसन्तो गर्हयन्तः परं वचः ।
ये तु तत्र विद्वस्यन्ते संसारं ते व्युच्छ्रिताः || २३ ||
अन्वयार्थ
( सयं सयं) अपने-अपने मत की ( पसंसंता) प्रशंसा करते हुए (परं वयं ) और दूसरे के वचन की (गरहंता ) निन्दा करते हुए (जे उ) जो मतवादीजन ( तत्थ ) उस विषय में (विउस्संति) अपनी विद्वत्ता प्रगट करते हैं, (ते) वे (संसारं ) जन्म-मरणरूप संसार में (विउस्सिया ) अत्यन्त दृढ़रूप से बँधे हुए हैं ।
भावार्थ
अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के वचन की निन्दा करते हुए जो मतवादीजन उस विषय में अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे वास्तव में ( एकान्तवाद के मताग्रहरूप मिथ्यात्व के कारण ) जन्म-मरणरूप संसारबन्धन में दृढ़ता से जकड़े हुए हैं ।
व्याख्या
स्वमत प्रशंसा एवं परमत-निन्दा हो एकान्तवाद का मूल
इस गाथा में शास्त्रकार ने विभिन्न एकान्तवादी दार्शनिकों की मिथ्यात्वी मनोवृत्ति का परिचय दिया है । अज्ञान, मिथ्यात्व एवं मतमोहान्ध वे मतवादी अपने माने हुए मत की बढ़-चढ़ कर तारीफ करते हैं । वे दूसरों के सामने यह रट लगाते फिरते हैं कि 'हमारे मत में यह विशेषता है, यह सुगमता है, इतनी छूट है, ऐसा व्यवहार है, इतने इतने उच्च साधक हैं या हुए हैं, मुक्ति के लिए इस मत की समानता और कोई मत नहीं कर सकता ।' वे लोग स्वमत - मण्डन करके ही रह जाएँ, तब भी गनीमत है, उनके मन-मस्तिष्क की खुजली इतने से शान्त नहीं होती, वे सदैव ही दूसरों के मत का, उनके ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत करते हुए बखिया
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