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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (एव) पूर्वोक्त प्रकार से (तक्काइ) तर्कों के द्वारा (साहिता) अपने मत को मोक्षदायक सिद्ध करते हुए (धम्माधम्मे अकोविया) धर्म तथा अधर्म को न जानने वाले (त) वे अज्ञानवादी (दुक्खं ) जन्ममरणादि दुःख को (नाइतुझंति) अत्यन्त रूप से तोड़ नहीं पाते, (जहा) जैसे (सउणी) पक्षी (पंजरं) पिंजरे को नहीं तोड़ पाता।
भावार्थ पूर्वोक्त प्रकार से अपने मत को मोक्षदायक सिद्ध करते हुए धर्म तथा अधर्म से अनभिज्ञ वे अज्ञानवादी जन्ममरणादि दुःख के कारणभूत कर्मबन्धन को नहीं तोड़ पाते, जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता।
व्याख्या
धर्माधर्म से अनभिज्ञ : अज्ञानवादी
पूर्वोक्त अज्ञानवाद के विविध कुतर्कों के द्वारा अज्ञानवादी अपने मत को मोक्षदायक सिद्ध करने के लिए एड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा देते हैं। वे अपने को अज्ञानवादी कहते हैं, किन्तु वे मृषावादी भी हैं, क्योंकि ज्ञान का विरोध या खण्डन करके भी उसी ज्ञान को प्रतिदिन अपनाते हैं, अनुमान आदि का प्रयोग भी उसी ज्ञान के माध्यम से करते हैं।
प्रश्न होता है कि वे अज्ञानवादी जब इतने पैने तर्क-तीर चला कर दूसरों को कायल कर देते हैं, तब धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि को वे ठुकरा क्यों देते हैं ? इसका उत्तर शास्त्रकार यों देते हैं
धम्माधम्मे अकोविया-धर्म और अधर्म के मामले में वे अत्यन्त अज्ञानी हैं या अनिपुण हैं। वे न तो क्षमा आदि दश विध उत्तमधर्म को जानते-मानते हैं और न ही जीवहिंसा से उत्पन्न पाप को जानते-मानते हैं। एक प्रकार से जड़ता के प्रतिनिधि वे अज्ञानवादी मिथ्यात्व, अविरति आदि कर्मबन्धनों के कारणों से उत्पन्न घोर कर्मबन्धन को नहीं तोड़ सकते। जिस तरह पक्षी अपने चिरपरिचित पिंजरे को तोड़ नहीं सकता; उसी तरह अज्ञानवादी भी संसाररूपी पिंजरे से अपने को मुक्त नहीं कर सकता। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं --- "दुक्खं ते नाइतुति ।" यहाँ 'दुःख' शब्द दु:ख के कारणभूत 'कर्मवन्धन' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नाइतुति का अर्थ होता है- अत्यन्त रूप से नहीं तोड़ पाता । इसका आशय है, काम अकामनिर्जरावश थोड़े बहुत कर्मबन्धनों को वे अज्ञानवादी दूर कर दें, किबन्धनों से सर्वथा मुक्त होने में वे समर्थ नहीं होते।
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