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समय : प्रथम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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६३ भेद हो गये तथा इनमें ४ विकल्प और जोड़े जाते हैं । ये विकल्प भावोत्पत्ति की दृष्टि से होते हैं--(१) भाव की उत्पत्ति सत् होती है, यह कौन जनता है ? अथवा इसे जानने से क्या लाभ है ? (२) भाव की उत्पति असत् होती है, यह कौन जानता है ? अथवा उसके जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (३) भाव की उत्पत्ति सत्असत् होती है, यह कौन जानता है ? अथवा जानने से प्रयोजन भी क्या है ? (8) भाव की उत्पत्ति अवक्तव्य होती है, यह कौन जानता है ? और इसे जानने से भी क्या मतलब है ? इस प्रकार पूर्वोक्त सात विकल्पों में से चार विकल्प तो भावोत्पत्ति के विषय में कहे गये हैं शेष तीन विकल्प भावोत्पत्ति के नहीं होते। किसी पदार्थ की उत्पत्ति होने के पश्चात् उस पदार्थ के अवयव की अपेक्षा से होते हैं । इसलिए भावोत्पत्ति के विषय में वे सम्भव नहीं है। इस हिसाब से पहले के नौ तत्त्वों पर सत्-असत् आदि सात विकल्प होते हैं जो ६३ हुए और ४ विकल्प भावोत्पत्ति के (जो अभी कहे हैं) मिलाकर कुल ६७ वितर्क (विकल्प) अज्ञानवादियों के हुए। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा---'अप्पणो य वियकाहि अयमंजूहि दुम्मई' । अर्थात् वे दुर्बुद्धि अपने ही प्रयुक्त वितर्कों (विकल्पों) के भँवरजाल में ऐसे फंसे रहते हैं कि उन्हें अज्ञानवाद के अतिरिक्त कोई सरल तथा श्रेयस्कर मार्ग जंचता ही नहीं। वे अपने इन वितर्कों के अहंकार में ग्रस्त होकर अपने को पण्डित, तत्त्वज्ञानी और न जाने क्या-क्या समझते हैं। वे मानते हैं कि हम ही तत्त्वज्ञानी हैं, हमसे बढ़कर कोई भी नहीं है। यह समझकर वे अपने से भिन्न दूसरे ज्ञानवादी आदि की उपासना नहीं करते । साथ ही वे अपने वितर्कजाल के कारण यह मानते हैं कि 'हमारा अज्ञानमार्ग ही कल्याणमार्ग है। वही निर्दोष है और दूसरे मतवादी उसका खण्डन नहीं कर सकते ; तथा अज्ञानमार्ग ही सत्य और उत्तम गुणयुक्तः तथा यथावस्थित अर्थ को प्रगट करता है।
__प्रश्न होता है-वे अज्ञानवादी ऐसा क्यों कहते हैं ? शास्त्रकार एक शब्द में उसका उत्तर सूचित करते हैं, दुम्मई अर्थात् वे दुर्मति या विपरीत बुद्धि से युक्त हैं।
मूल पाठ एवं तक्काइ साहिता धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते नाइतुट्टन्ति, सउणी पंजरं जहा ॥२२॥
संस्कृत छाया एवं तक: साधयन्तः, धर्माधर्मयोरकोविदाः । दुःखं ते नातित्रोटयन्ति, शकुनिः पंजरं यथा ॥२२।।
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