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________________ १७६ भावार्थ इस प्रकार के कई विपरीत बुद्धि वाले अज्ञानवादी अपने पक्ष के समर्थन में पूर्वोक्त प्रकार के मिथ्या कुतर्क प्रस्तुत करके अपने मत से भिन्न जो ज्ञानवादी वगैरह हैं, उनकी सेवा - उपासना नहीं करते । वे अपने उक्त कुतर्कों के कारण अज्ञानवाद ही श्रेयस्कर और सरल मार्ग है, ऐसा मानते हैं । व्याख्या सूत्रकृतांग सूत्र अज्ञानवादियों के कुतर्क एवमेगे विपक्का हि-शास्त्रकार ने इस गाथा में अज्ञानवादियों के उन वितर्कों या कुतर्कों का स्मरण दिलाया है जो उनके मन-मस्तिष्क में ऐसा तूफान चाये हुए हैं कि वे इन वितर्कों के कारण अपने आप को बहुत बड़े पण्डित, विद्वान, विचारक मानते हैं, अपने मत से भिन्न ज्ञानवादियों के चरणों में बैठकर किसी बात का समाधान नहीं करते, न सरलतापूर्वक वे सत्य को स्वीकार करते हैं । अज्ञानवादियों के कुतर्क कौन से हैं ? पिछली गाथाओं में हम संक्षेप में अज्ञानवाद का परिचय दे आएँ हैं । उन कुतर्कों के अतिरिक्त अज्ञानवादियों के और भी विकल्प हैं । पूर्वोक्त अज्ञानवादी जिन विकल्पों को कुतर्क के रूप में प्रस्तुत करते हैं, उनके हिसाब से कुल मिलाकर इनके ६७ विकल्प ( भेद ) हो जाते हैं । उन भेदों ( विकल्पों ) को इस तरीके से जानना चाहिए । इनका सबसे पहला वितर्क यह है— कौन जानता है कि जीव सत् है ? क्योंकि जीव की सत्ता सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण भी नहीं है, अतः उसकी सत्ता को कोई सिद्ध नहीं कर सकता । अथवा जीव की सत्ता का ज्ञान भी हो जाये तो उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । क्योंकि जीव चाहे नित्य, सर्वगत, अमूर्त और ज्ञानादि गुणयुक्त हो या इससे विपरीत हो, इससे किसी भी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती । इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है । Jain Education International इसी प्रकार कौन जानता है कि जीव असत् है ? और इसको जानने से भी प्रयोजन नहीं है । इसी प्रकार सदसत्, अवक्तव्य, सद्द्भवक्तव्य, असद्द्भवक्तव्य, सद्धसद्भवक्तव्य यों एक-एक वितर्क पर जीव के विषय में एक-एक विकल्प होने से सात हुए | तत्त्व नौ हैं, - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा बन्ध और मोक्ष । इन नौ तत्त्वों पर सात-सात विकल्प होते हैं । अतः εX७ = For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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