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समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
आकर दूसरे अन्धे के नेतृत्व में चल पड़ा। दूसरा अन्धा स्वयं मार्ग नहीं देख सकता था, अतः अपने पीछे चलने वाले अन्धे को जिस मार्ग से जाना था, उसे छोड़कर वह असली मार्ग से बहुत दूर पहुँच गया। वहाँ से फिर भटककर वह कँटीलेकंकरीले उजड़ मार्ग पर चढ़ गया । आगे चलकर दोनों अन्धे दूसरे ही मार्ग पर चल पड़े और ऐसे भटक गये कि उन्हें असली रास्ता नहीं मिला।
यही हाल अज्ञानवादियों को नेता मानकर उनके पीछे चलने वाले मार्ग से अनभिज्ञ अन्धतुल्य नासमझ शिष्य का होता है। अज्ञानवादी स्वयं सम्यक्मार्ग से अनभिज्ञ है, तब अपने पीछे चलने वालों को वे कैसे मार्ग बता सकेंगे ? सचमुच अपने पीछे चलने वालों को भी वे बहुत दूर क्रियाकाण्डों के गहन वन में या तापस तक के उजड़ मार्ग में ले जाकर छोड़ेंगे। यही शास्त्रकार का आशय है । अब उन्हीं अज्ञानवादियों की उन्मार्गगामिता का परिचय दे रहे हैं
मूल पाठ एवमेगे नियायट्ठी, धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्ममावज्जे, ण ते सव्वज्जुयं वए ॥२०॥
संस्कृत छाया एवमेके नियागार्थिनो धर्माराधकाः वयम् । अथवाऽधर्ममापद्य रन् न ते सर्व कं व्रजेयुः ।।२०।।
अन्वयार्थ (एवं) इस प्रकार (एगे) कई (नियायट्ठी) मोक्षार्थी कहते हैं (वयं) हम (धम्ममाराहगा) धर्म के आराधक हैं । (अदुवा) परन्तु वे (अधम्ममावज्जे) अधर्म को प्राप्त करते हैं (सव्वज्जयं) सब प्रकार से सरल मार्ग को (ण ते वए) वे प्राप्त नहीं करते हैं।
भावार्थ इस प्रकार कई मोक्षार्थी (तथाकथित). कहते हैं कि हम धर्म के आराधक हैं। परन्तु धर्म की आराधना तो दूर रही, वे प्रायः अधर्म को ही (धर्म के नाम से) स्वीकार कर लेते हैं। वे सब प्रकार से सरल संयम के मार्ग को प्राप्त नहीं कर पाते ।
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