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________________ १७२ सूत्रकृतांग सूत्र जैसे स्वयं अन्धा व्यक्ति मार्ग में दूसरे अन्धे को ले जाता हुआ जहाँ जाना है, वहाँ से दूर, बहुत दूर देश में चला जाता है । अथवा वह (काँटे, कंकड़, जंगली हिंसक जन्तुओं से भरे) उजड़ रास्ते पर चढ़ जाता है, अथवा ठीक मार्ग को छोड़कर दूसरे रास्ते पर चला जाता है । व्याख्या अन्धे के पीछे अन्धा : विनाश का धन्धा अज्ञानवादियों की अनिष्ट दशा को समझाने के लिए शास्त्रकार दो दृष्टान्तों द्वारा वस्तुतत्त्व अभिव्यक्त करते हैं (१) एक घोर जंगल है । उसमें हिंसक जंगली जन्तुओं का भय है । एक पथिक घूमता- घामता रास्ता भूल गया, उसे यह पता ही नहीं चल रहा था कि मैं किस दिशा में जा रहा हूँ ? वह दिग्मूढ एवं व्याकुल होकर इधर-उधर देख रहा था कि इतने में एक दूसरा पथिक आता हुआ दिखाई दिया, वह भी पथभ्रष्ट और दिशामूढ़ था, परन्तु वाचाल होने के कारण उक्त व्याकुल पथिक से कहा -'मेरे पीछे चले आओ, मैं तुम्हें सही-सलामत गन्तव्य स्थान पर पहुँचा दूंगा, मैंने सब रास्ता देखा है । वह दिशामूढ़ भयभ्रान्त बेचारा पथिक इस नये वाचाल पथिक के चक्कर में आकर उसके पीछे-पीछे चलने लगा । नतीजा यह हुआ कि उस मार्ग भ्रष्ट एवं मार्ग से अनभिज्ञ पथिक के पीछे चलने से वह भोला पथिक दुःखी हुआ । साथ में जो मार्गदर्शक नेता बना था, वह भी मार्ग का जानकार न होने से अत्यन्त दु:खी हुआ। दोनों एक-दूसरे को कोसने लगे। आवाज सुनकर एक भयानक जंगली जानवर आ गया । उसने दोनों पर झपटकर वहीं दोनों का काम तमाम कर डाला । यह एक रूपक है । यही हाल सत्पथ से अनभिज्ञ अज्ञानवादी गुरु का है, उसके पीछे-पीछे यदि कोई दिशामूढ़ भयभ्रान्त पथिक उसके बहकावे में आकर चल देता है तो आखिर दोनों इस घोर संसाररूपी जंगल में भटकते रहते हैं और कहीं न कहीं भयंकर दुःख एवं मरण की चपेट में आ जाते हैं । ( २ ) इसी प्रकार एक दूसरा दृष्टान्त देकर इस बात को समझाया गया है— एक अन्धा था, वह कहीं चला जा रहा था । मार्ग में उसे एक दूसरा अन्धा मिला । वह वाचाल था । पहले वाले अन्धे से उसने पूछा 'कहाँ जा रहे हो ?' उसने किसी नगर का नाम लिया, तो दूसरा वाचाल अन्धा तपाक से बोला- 'अरे, पहले तुमने क्यों नहीं कहा ? तुम तो उलटे चल रहे हो । मेरे साथ चले आओ । मैं तुम्हें ठीक मार्ग से सही-सलामत वहीं पहुँचा दूंगा ।' पहला अन्धा भुलावे में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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