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________________ १७४ सूत्रकृतांग सूत्र व्याख्या आजीवक आदि मतों का निरूपण एवं'-- इस गाथा में ‘एवं' पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित भावों को प्रदर्शित करने के लिए है। पूर्वोक्त प्रकार से जो भावमूढ़, भावान्ध, अज्ञानी आजीवक आदि हैं, वे नियाय यानी मोक्ष अथवा सद्धर्म को प्राप्त करने के इच्छुक हैं । 'धम्ममाराहगा वयं'--वे तथाकथित मोक्षार्थी यह मान कर प्रव्रज्या धारण करते हैं कि हम उत्तमधर्म के आराधक हैं। शास्त्रकार के इस कथन के पीछे आशय यह है कि वे लोग परिव्राजक या श्रमण का वेष धारण करने के साथ ही मन में यों समझ लेते हैं, कि हम श्रमण या संन्यासी हो गए हैं और उच्चधर्म का हम ही पालन करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि श्रमण, संन्यासी या परिव्राजक को अपने विचार और आचार कितने उच्च रखने चाहिये ? उसका जीवन क्षमा आदि दस उत्तमधर्मों से सुशोभित होना चाहिए? इसीलिए तो श्रमण भगवान महावीर ने केवल वेष से किसी को श्रमण, माहण (ब्राह्मण), तापस, आदि नहीं माना, अपितु तदनुरूप उच्च आचार-विचार अनिवार्य बताये हैं. ण वि मुण्डिएण समणो, ण ओंकारेण बम्भणो । ण मुणी रग्णवासेणं, कुसचीरेण ण तावसो ॥ समयाए समणो होई, बंभचेरेण बम्भणो । नाणेण य मुणी होई, तवेण होइ तावसो ।' मुंडन कर लेने से कोई श्रमण नहीं हो जाता, ओंकार का नाम रटने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता, न अरण्य में निवास करने से कोई मुनि हो जाता है और न ही कुश-काषायवस्त्र आदि धारण करने से कोई तापस हो सकता है। समताभाव रखने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य-पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान प्राप्त करके अपने और जगत् के स्वरूप पर मनन करने से मुनि होता है और अहंकार से रहित होकर तप करने से तापस होता है। परन्तु पूर्वोक्त आजीवक आदि मत के श्रमण या अन्य परिव्राजक इन बातों को मानते नहीं, न जानने का उपक्रम करते हैं । वे ऐसे किसी भी मत में दीक्षित होकर---प्रव्रज्या धारण करके भी पृथ्वी, जल और वनस्पतिकाय का उपमर्दन (हिंसा) करके पचन-पाचन आदि क्रिया में प्रवृत्त होकर स्वयं ऐसे सावध कार्य करते-कराते रहते हैं, दूसरों को भी उपदेश देते रहते हैं। इस प्रकार वे श्रमण या परिव्राजक इष्ट-मोक्ष की प्राप्ति से भ्रष्ट हो जाते हैं । मोक्ष की प्राप्ति १. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २५, गा० ३१, ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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