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________________ १६८ सूत्रकृतांग सूत्र करने का प्रयास करते हैं, परन्तु उसकी सारी विचार चर्चा ज्ञान ( अनुमान आदि प्रमाणों) द्वारा करते हैं, यह बेतुकी और 'वदतोव्याघात' जैसी बात है । अज्ञान - Tarf का मन्तव्य यह है कि बिना विचारे अज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्मबन्ध विफल हो जाता है, वह दारुण दुःख नहीं देता । ज्ञान कल्याणकारी नहीं होता । ज्ञान ही तमाम वितण्डावादों की सृष्टि करता है । ज्ञान से ही तो एक वादी दूसरे के विरुद्ध तत्त्व प्ररूपण करके विवाद का अखाड़ा बनाते हैं । बाद-विवाद से चित्त में कलु - षितता आदि दोष पैदा होते हैं, जिनसे दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण होता है । जब इस अनर्थमूलक ज्ञान को छोड़कर अज्ञान का सहारा लेते हैं तो, 'यह मेरा सिद्धान्त है, मैं तुम्हारे मत का खण्डन करूँगा', इत्यादि ज्ञानमूलक अंहकार कभी उत्पन्न नहीं हो सकता । अहंकार न होने से एक दूसरे के प्रति कालुष्य नहीं होगा । चित्त में कालुष्य न होने से कर्मबन्ध की सम्भावना भी नहीं रहेगी । इसी तरह, जो कार्य विचारकर जानबूझकर किये जाते हैं, उनसे दारुण फलदायक कर्मबन्ध होता है, और उस कर्मबन्ध का कठोर फल अवश्य भोगना पड़ता है। तीव्र अध्यवसाय से अर्थात् बुद्धिपूर्वक होने वाले कषायादेश से जो कर्मबन्ध होता है, उसका फल भी अबाधित होता है । अतः जो कर्म मन के अभिप्राय के बिना केवल वचन और शरीर की प्रवृत्ति मात्र से उपार्जित किये जाते हैं, उनमें चित्त का तीव्र अभिनिवेश – अत्यन्त कषायवृत्ति न होने से उनका फल भी नहीं भुगतना पड़ता । वे कर्म फल दिये बिना भी झड़ सकते हैं । यदि उन्होंने फल भी दिया तो इतना दारुण- फल नहीं होता । दीवार पर लगी हुई धूल के झाड़ने के समान थोड़ी सी शुभ-अध्यवसायरूप हवा के झोंके से अपने आप वह कर्मरज झड़ जाती है । मन में रागद्वेषादिरूप अभिनिवेश उत्पन्न न होने देने का सबसे आसान उपाय है -- ज्ञानपूर्वक व्यापार को छोड़कर अज्ञान में ही सन्तोष करना। क्योंकि जब तक ज्ञान रहेगा, तब तक वह कुछ न कुछ रागद्वेषादिरूप उत्पात करता ही रहेगा । वह शान्त नहीं बैठा रहेगा । अतः मोक्षसाधक मुमुक्षु के लिए अज्ञान ही साध्य तथा श्रेयस्कर हो सकता है, ज्ञान नहीं । दूसरी बात यह है कि ज्ञान तो तब उपादेय हो सकता है, जब ज्ञान के स्वरूप का ठीक-ठीक निश्चय हो जाय। इस संसार में अनेकों मत-मतान्तर हैं, सभी मतवाले अपने-अपने तत्त्वज्ञान के सच्चे होने का दावा करते हैं । अत: इस आपाधापी में 'कौनसा मत सच्चा है ? या किसका ज्ञान यथार्थ है ?' यह निर्णय करना कठिन ही नहीं, असम्भव है । सभी दर्शन वाले अपनी-अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग-अलग पका रहे हैं। सभी अपने-अपने सिद्धान्तों के लिए सत्यता की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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