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समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
मूल पाठ अन्नाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण विनियच्छइ । अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउ ॥१७॥
संस्कृत छाया अज्ञानिकानां विमर्शः अज्ञाने न विनियच्छति । आत्मनश्च परं नालं, कुतोऽन्याननुशासितुम् ? ।।१७।। .
अन्वयार्थ (अन्नाणियाणं) अज्ञानियों का (वीमंसा) पर्यालोचनात्मक विचार (अण्णाणे) अज्ञानपक्ष में (ण विनियच्छइ) युक्तिसंगत नहीं हो सकता । (अप्पणो) वे अज्ञानवादी अपने को भी (परं) अज्ञानवाद की (अणुसासिउं) शिक्षा देने में (नालं) समर्थ नहीं हैं, (अन्नाणुसासि कुतो) दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
भावार्थ ___ अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञान ही श्रेष्ठ है, इसकी मीमांसा (सर्वतोमुखी विचार) अज्ञानपक्ष में संगत नहीं हो सकती। जब अज्ञानवादी अपने आपको अनुशासित करने (शिक्षा देने) में समर्थ नहीं है, तब फिर वे दूसरों को अनुशासित करने (शिक्षा देने) में कैसे समर्थ हो सकते हैं ?
व्याख्या
अज्ञानवाद अज्ञानपक्ष से सिद्ध नहीं हो सकता इस गाथा में शास्त्रकार ने तर्को द्वारा अज्ञानवाद को असिद्धकर बताया है। पहला तर्क यह है कि अज्ञानवादी' जो अज्ञान को ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ वस्तु सिद्ध
१. अज्ञान का अर्थ है-कुत्सितज्ञान । वह अज्ञान जिसका हो, वह अज्ञानिक है
अथवा अज्ञानपूर्वक जिनका आचार-व्यवहार है, वे अज्ञानिक कहलाते हैं । हिता
हित-परीक्षा से जो रहित हैं, वे भी अज्ञानिक हैं। (क) कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, तद् येषामस्ति तेऽज्ञानिकाः । ते च वादिनश्चेत्मज्ञानिक
वादिनः। (ख) वे अज्ञानवादी शाकल्य, सात्यमुद्रि, मौद, पिप्पलाद, बादरायण, जैमिनि, वसु आदि
प्रमुख हैं। जैसा कि राजवातिक में कहा है-"शाकल्य-वाल्कल-कुथुमि-सास्यमुद्रि-नारायण-कण्ठमाध्यंदिन-मौद-पिप्पलाद-बादरायणाम्बष्ठिकृदौदरिकायनवसूजैमिनि इत्यादीनामज्ञानकुदृष्टीनां सप्तषष्ठिः।"
-भग
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