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________________ समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक दुहाई दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह विवेक करना कठिन हो रहा है कि यह सच्चा है या वह ? सभी अपने-अपने मत के प्रवर्तकों को सर्वज्ञ और दूसरे मत के प्रवर्तकों को असर्वज्ञ कहते हैं, अपने शास्त्र और उनमें प्ररूपित ज्ञान को सभी अपने सर्वज्ञ द्वारा भाषित एवं पूर्ण सत्य कहते हैं। पर इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है कि सर्वज्ञ कौन है ? किस मत का प्रवर्तक सर्वज्ञ है ? यदि निर्णय भी कर लिया जाय कि अमुक मत का प्रवर्तक सर्वज्ञ है, तब भी वे शास्त्र या वे सिद्धान्त-वचन उस सर्वज्ञ के द्वारा भाषित या उपदिष्ट हैं या नहीं ? यह जाँचना-परखना भी टेढ़ी खीर है। क्योंकि किसी भी सर्वज्ञ को हमने या हमारे पूर्वजों ने कभी शास्त्रोपदेश करते भी तो नहीं देखा। तब बिना प्रमाण के तथाकथित मत के प्रवर्तक को सर्वज्ञ तथा उसके द्वारा प्रकाशित शास्त्रज्ञान को सर्वज्ञोपदिष्ट कैसे माना जाये ? थोड़ी देर के लिए आपकी (जैनों की बात मानकर हम यह स्वीकार भी कर लें कि आचारांग आदि शास्त्रों में उक्त वचन सर्वज्ञ महावीर के हैं, तब भी शास्त्र में उक्त वचनों (शब्दों) का यही अर्थ है, दूसरा नहीं; इस प्रकार का निश्चय कौन और कैसे करेगा? क्योंकि आपके सर्वज्ञ उन शब्दों का निश्चित अर्थ तो कर ही नहीं गये हैं। यही कारण है कि एक ही शास्त्र पर कई शब्दों के विभिन्न टीकाकारों एवं व्याख्याकारों ने परस्पर विरुद्ध अनेक अर्थ किये हैं। वहाँ बुद्धि चकरा जाती है। कौन-सा अर्थ सही होगा, कौन-सा गलत, इसका निर्णय करना भी कठिन हो जाता है । अतः इन सब झंझटों से दूर रहने के लिए अज्ञान को ही अपनाना श्रेयस्कर है। ज्ञान ही सारे अनर्थों का मूल है। इसी से अहंकारपूर्वक रागद्वेष होने से अनन्त संसार की वृद्धि होती है, फिर कौन-सा ज्ञान सम्यक् है, इसका निश्चय करना भी अत्यन्त कठिन है। इस अनर्थमूलक ज्ञान से कल्याण नहीं हो सकता। अतः अज्ञान ही श्रेय:साधक है। ___ अज्ञानवादियों की पूर्वोक्त विचारधारा का निराकरण करने हेतु शास्त्रकार कहते हैं- 'अन्नाणियाणं वोमंसा अण्णाणे ण विनियच्छइ।' इसका आशय है कि अज्ञानवादियों द्वारा अज्ञान ही श्रेष्ठ है। वही श्रेयस्कर है, ज्ञान अनर्थों का मूल है, इत्यादि बातें सिद्ध करने के लिए उन्होंने जो अनुमानादि (तर्क, युक्ति, हेतु आदि) ज्ञान का सहारा लिया है, वह 'वदतोव्याघात' जैसा है। अपनी ही बात अपने व्यवहार से वे खण्डित कर रहे हैं । अज्ञान को श्रेयस्कर सिद्ध करने के लिये ज्ञान का आश्रय वे क्यों लेते हैं ? 'ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता है, त्यों-त्यों दोष बढ़ता है, यह ज्ञान सत्य है या असत्य ? तथा 'अज्ञान ही श्रेयस्कर है,' इत्यादि मीमांसा या विचारचर्चा करना भी अज्ञानवादियों को उचित नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का पर्यालोचनात्मक विचार भी तो ज्ञानरूप है। जब वे स्वयं जानबूझकर अज्ञानी बनकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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