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________________ समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक १६१ हम इतने क्रियाकाण्ड करते हैं, क्रोध, अभिमान, लोभ या माया का सद्भाव हुआ तो क्या हुआ ? तत्त्वज्ञान से या क्रियाकाण्ड कर लेने से सब कषाय मिट जाएँगे। इसीलिये शास्त्रकार ने कर्मबन्धन को काटकर सर्वथा कर्मरहित-मुक्त बनने की बात का नुस्खा बता दिया-सव्वप्पगं ... "विहूणिआ अपत्तिअं अकम्मंसे ।" आशय यह है कि सर्वात्मक लोभ, अनेक प्रकार का अभिमान, समस्त माया और क्रोध को छोड़ने पर ही आत्मा सर्वथा कर्मों से मुक्त होता है। चाहे जैसा वेष पहनो, चाहे जो धर्माचरण करो, परन्तु इन क्रोधादि चार कषायों को मिटाये बिना कर्मबन्धनों से साधक मुक्त नहीं हो सकता। । परन्तु यह बात उन मिथ्यात्वग्रस्त विवेक-विकल दिग्गज दार्शनिकों या मतवादियों को कहाँ सुहाती है, वे बेचारे मिथ्याज्ञान एवं मिथ्यामोह से आवृत रहते हैं, इसलिये इस बात को ठुकरा कर अपनी पकड़ी हुई बात या मान्यता पर ही चलते हैं। ___ अकम्मंसे-जिसका कर्म अंशमात्र भी नहीं रह गया है, उसे अकर्माश कहते हैं । अकर्माश होता है विशिष्ट सम्यग्ज्ञान से, अज्ञान से नहीं। किन्तु जिनमें अज्ञान है, वे क्या करते हैं ? इसे बताने के लिये शास्त्रकार कहते हैं-एयमझें मिगे चए अर्थात् वे मृगवन् अज्ञानी कर्म (बन्धन) से मुक्त होने तथा कषायचतुष्टयरूप उसके कारण पर विचार करने की बात को ठुकरा देते हैं। किसी-किसी प्रति में 'चए' के बदले 'चुए' पाठ है, वहाँ इस प्रकार अर्थ करना चाहिये कि इस अर्थ (सच्चे ज्ञान) से अज्ञानी जीव भ्रष्ट हो जाते हैं । 'सव्वप्पगं विउक्कस्सं सव्वं मं...''अप्पत्ति' चार कषायों के ये चार नाम शास्त्रकार ने अपनी विशिष्ट रचना-पद्धति से दिये हैं, वैसे इनके क्रमश: प्रचलित नाम हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । परन्तु यहाँ लोभ के बदले 'सव्वप्पगं' नाम दिया है। इसका अर्थ होता है--जिसका आत्मा सर्वत्र होता है, वह सर्वात्मक है-लोभ । मान के बदले 'विउक्कस्सं' शब्द दिया है, जिसका अर्थ होता है--विविध उत्कर्ष = गर्व =व्युत्कर्ष अर्थात् मान । माया के बदले 'णूम' शब्द दिया है और क्रोध के बदले यहाँ 'अप्पत्ति' शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है—जिसका कोई प्रत्यय (प्रतीति) भरोसा न हो कि कब आ धमकेगा, वह क्रोध है, बिना बुलाया मेहमान । कषायों से मुक्ति : मोहनीयक्षय से शास्त्रकार द्वारा प्रदर्शित लोभ, मान, माया और क्रोध इन चार कषायों से सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का ग्रहण हो जाता है । जैन सिद्धान्तानुसार ये चारों कषाय मोहनीय कर्म से ही प्रादुर्भूत होते हैं । अतः लोभादि कषायों के त्याग से समस्त मोहनीय कर्म का त्याग समझ लेना चाहिये। तभी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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