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सूत्रकृतांग सूत्र माया, (विउक्स्स ) विविध प्रकार के उत्कर्ष-मान, (अप्पत्तिअं) और क्रोध को (विहूणिया) त्याग कर ही (अकम्मसे) जीव कौशरहित-सर्वथा कर्मरहित होता है, (एयमलैं) किन्तु इस सर्वज्ञभाषित अर्थ-सदुपदेश को (मिगे) मृग के समान अज्ञानी जीव (चुए) ठुकरा देता है, त्याग देता है।
भावार्थ ___ सबके अन्तःकरण में व्याप्त लोभ, समस्त माया, विविध प्रकार के उत्कर्षरूप मान और क्रोध का सर्वथा त्याग करने पर ही जीव सर्वथा कर्मबन्धन से रहित होता है, इस वीतराग प्ररूपित सत्य सिद्धान्त को मृग की तरह अज्ञानी जीव ठुकरा देता है, छोड़ देता है ।
व्याख्या समस्त कषायनाश ही सर्वथा कर्मक्षय का कारण
इस गाथा में शास्त्रकार ने कर्मबन्ध के एक विशिष्ट कारण कषाय को सूचित करके कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होने के लिये कषायों से सर्वथा मुक्ति आवश्यक बताई है।' इसका कारण यह है कि विविध धर्म-सम्प्रदाय, दर्शन एवं मत वाले लोगों में उस युग में कुछ तो सिर्फ ज्ञान प्राप्त कर लेने से मुक्ति मानते थे, कुछ केवल क्रियाकाण्ड या साम्प्रदायिक या स्वमतकल्पित कुछ क्रियाएँ, यज्ञ-हवन आदि अनुष्ठान या अज्ञानपूर्वक कष्ट-सहन या तप करने से मुक्ति मानते थे।
वे यह मानते थे कि हम जटाएँ बढ़ा लें, कुछ तप-जप कर लें, कुछ अपने मत के द्वारा माने हुए कियाकाण्डों को कर लें, या तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लें। इतने से ही हमारी मुक्ति हो जाएगी, परन्तु भगवान महावीर ने तथा जैनाचार्यों ने कहा कि जब तक क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से छुटकारा नहीं पा लोगे, तब तक कर्मबन्धनों से मुक्ति असम्भव है । परन्तु भ० महावीर की यह सीधी, सरल, सच्ची बात मतान्ध लोग भला कब मान सकते थे? वे जोश-खरोश में आकर कहते थे, हम इतना तप-जप करते हैं, इतना यज्ञ करते हैं, इतने शास्त्र हमें कण्ठस्थ हैं,
१. कहा भी है--नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्कवादे ।
न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः , कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।। न दिगम्बरत्व स्वीकार करने से मुक्ति होती है, न श्वेताम्बरत्व स्वीकार करने से और न तत्त्वों के विषय में वाद-विवाद कर लेने से, न कोई तर्क-वितर्क करने से ही मुक्ति होती है। किसी एक पक्ष का आश्रय लेने से भी मुक्ति नहीं होती। कषायों से मुक्ति होना ही वास्तव में मुक्ति है।
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