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समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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भावार्थ ___वे विचारमूढ़, अविवेकी एवं शास्त्रज्ञानवजित अन्यदर्शनी मिथ्यादृष्टि यह जो क्षमा आदि दश धर्मों की प्ररूपणा है, उसमें तो अधर्म की शंका करते हैं, और जिन अनुष्ठानों में षट्काय (जीवों) के उपमर्दन रूप आरम्भ होता है, उसमें शं का नहीं करते ।
व्याख्या
शंकनीय-अशंकनीय का विपर्यास जिनकी बुद्धि पर मिथ्यात्व का पर्दा पड़ा हुआ है, वे शंकनीय और अशंकनीय के विवेक से रहित, विचारमूढ़ एवं शास्त्रज्ञान से रहित अज्ञानवादी आदि अन्यतीर्थी लोग जहाँ शंका नहीं करनी चाहिये, ऐसी धर्मप्ररूपणा-धर्माचरण की प्रेरणा जिन वीतराग प्ररूपित शास्त्रों या सिद्धान्तों में है, उन पर शंका करते हैं कि यह तो असद्धर्म की प्ररूपणा है, इस अहिंसा से तो देश का बेड़ा गर्क हो जाएगा; किन्तु जिन तथाकथित शास्त्रों में यज्ञीय पशु हिंसा की घोर प्ररूपणा है, कामना-नामनापूर्ण कर्मकाण्डों का विधान है, हिंसाजनक कार्यों से युक्त हैं, ऐसे पापोपदानभूत आरंभों के विषय में बिलकुल शंका नहीं करते, उन्हें निःशंक होकर करते हैं । यही महान आश्चर्य है कि वे मिथ्यात्वपिशाचग्रस्त लोग शंकनीय-अगंकनीय का विवेक नहीं कर सकते । इसके दो कारण यहाँ बताए हैं-'अवियत्ता अकोविया' अर्थात् वे स्वभावतः सद्विवेक से रहित हैं तथा सत्-शास्त्र के ज्ञान से शून्य हैं।
.. ऐसे अज्ञानी मिथ्यात्वी लोग किस बात की अज्ञता के कारण सम्यक्ज्ञान या सत्शास्त्र का विवेक प्राप्त नहीं कर सकते? यह अगली गाथा में शास्त्रकार कहते हैं -
मूल पाठ सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्वं णम विहूणिया । अप्पत्तिअं अकम्मसे, एयमझें मिगे चुए ॥१२॥
संस्कृत छाया सर्वात्मकं व्युत्कर्ष, सर्वं मायां विधूय । अप्रत्ययमकर्माश एतमर्थं मृगस्त्यजेत् ॥१२॥
__ अन्वयार्थ (सव्वप्पगं) सर्वात्मक सबके अन्तःकरण में व्याप्त----लोभ, (सव्वं णूमं) समस्त
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