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व्याख्या
एकान्तवादी अज्ञानियों की दशा का चित्रण
यहाँ शास्त्रकार अज्ञानीजनों और एकान्तवादियों को मृग की उपमा देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार तेज भागने वाले मृग ( उपलक्षण से सारे जंगली जानवर ) परित्राण (चारों ओर से रक्षा करने वाले) से रहित होते हैं । जंगल में स्वच्छन्द विचरण करने वाले पशुओं का कोई रक्षक ( रखवाला) नहीं होता । अथवा परितान ACT अर्थ बंधन भी होता है, उस परितान से त्रस्त पशु भय से चंचल नेत्र होकर घबरा से जाते हैं । उस समय वे सम्यक् विवेक से रहित होकर कूटपाश आदि से रहित तथा शंका के अयोग्य स्थानों में ही बहम करने लग जाते हैं । उस सुरक्षित स्थान को वे खतरे की नजरों से देखते हैं, अनर्यजनक मानते हैं, तथा जो शंका करने योग्य पाश बन्धन आदि हैं, उनमें कतई शंका नहीं करते । अन्ततोगत्वा वे पशु व्याकुल होकर इधर से उधर भागते हुए उन्हीं पाश आदि बन्धनों में फँस जाते हैं ।
सूत्रकृतांग सूत्र
उनके अति मोह को पुनः प्रकट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं— अत्यन्त मूढ़तावश विपरीत ज्ञान के धनी वे बेचारे रक्षायुक्त (सुरक्षित) स्थानों में शंका करते हैं । अर्थात् जो रक्षा करने वाला है, उसमें खतरे की आशंका करते हैं और जहाँ अनर्थजनक पाशयुक्त स्थान है, वहाँ शंका न करके अज्ञान और भय से तड़फते हुए हृदय से आखिरकार वे बेचारे उन्हीं बन्धनों में जा पड़ते हैं । क्योंकि वे शंकनीयशंकनीय या सुरक्षित-असुरक्षित ( अनर्थयुक्त) स्थान का विवेक नहीं कर सकते । अतः अन्त में प्रलोभन वाले भयजनक स्थानों में आँख मूँद कर जा पहुँचते हैं ।
इस प्रकार का रूपक देकर शास्त्रकार नियतिवाद, कालवाद, पुरुषार्थवाद, कर्मवाद, ईश्वरवाद आदि एकान्तमताग्रही अज्ञानवादियों की भी वैसी ही विचित्र दशा बताते हैं । क्योंकि वे भी अनेकान्तवाद जैसे अनन्त रक्षक से दूर भागते हैं और अपने मतरूपी वन में स्वच्छन्द, किन्तु असुरक्षित एवं अनन्त रक्षक से रहित होकर भटकते हैं । वह रक्षायुक्त अनेकान्तवाद से रहित है तथा अनेकान्तवाद, सब दोषों से रहित एवं ईश्वर आदि को भी कारण मानने से अशकनीय हैं तथापि वे उसमें शंकित रहते हैं और नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि एकान्तवाद जो शंका के योग्य हैं, उन्हें वे निःशंक होकर अपनाते हैं। इस प्रकार परित्राता अनेकान्त में शंका करते हुए और युक्ति विरुद्ध तथा अनर्थपूर्ण एकान्तवाद को अशंकसमझते हुए वे अज्ञानग्रस्त मूढ़ एकान्तवादी उन कर्मबन्धनों के स्थानों में ही जा पहुँचते हैं ।
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