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समय : प्रथम अध्ययन --- द्वितीय उद्देशक
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पुनः मूर्ख मृग की उपमा देकर शास्त्रकार अज्ञानवादियों की दशा का चित्र
खींचते हैं-
मूल पाठ
अह तं पवेज्ज बज्भं, अहे बज्भस्स वा वए । मुच्चेज्ज पयपासाओ, तं तु मंदे ण पहए ॥ ८ ॥
संस्कृत छाया
अथ तं प्लवेत बन्धमधो बन्धस्य वा ब्रजेत् । मुञ्चेत्पदपाशात्तत्तु मन्दो न पश्यति ॥८॥
अन्वयार्थ
( अह ) इसके पश्चात् वह मृग (तं बज्झ ) उस बन्धन को ( पवेज्ज) उल्लंघन कर जाय (वा) अथवा ( बज्झ (स) बन्धन के ( अहे) नीचे होकर ( ब ) निकल जाय तो (पपासाओ) पैर के पाश बन्धन से ( मुच्चेज्न) छूट सकता है, (तु) परन्तु (तं) उस बन्धन को (मंदे ) वह मूर्ख मृग (ण पेहए ) नहीं देखता है ।
भावार्थ
वह मृग यदि कूद कर उस बन्धन को लाँघ कर चला जाए, अथवा उस बन्धन के नीचे से निकल जाए, तो वह झटपट पैरों में पड़े हुए बन्धन से 'मुक्त हो सकता है, मगर वह मूढ़ मृग इसे देखता ही नहीं है ।
व्याख्या
मूर्ख मृग के समान अज्ञानवादियों की दशा शास्त्रकार उसी दृष्टान्त के द्वारा फिर अज्ञानवादियों की मूर्खता का नग्न चित्र खींच रहे हैं । जैसे मूर्ख मृग छलांग मार कर उस कूटपाशादि बन्धन (जाल) को पार कर जाय, अथवा उस चर्ममय बन्धन के नीचे से होकर निकल जाय तो वह पदपाशरूप उस पैर के बन्धन में फँसने से बच सकता है, मगर वह मूर्ख मृग आँखें होते हुए भी उस जाल या बन्धन को देखता ही नहीं, हृदय की आँखों से इस बन्धन के दूरगामी दुष्परिणाम पर विचार नहीं करता । इसी प्रकार अज्ञानवादी, मृग (पशुबुद्धि वाले) के समान अपने सामने मोह एवं अज्ञान के द्वारा बिछाये हुए कपटजाल---एकान्तवादीमत के मिथ्याग्रह स्वरूप प्राप्त बन्धन को यदि अनेकान्तवाद की युक्ति से लाँघ जाए, अथवा दूर से ही देख कर उससे साफ बच जाये तो वह उस कर्मबन्ध के पाश (जाल) से जनित जन्म - जरा - मरण आदि दुःखों से छूट सकता
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