________________
समय : प्रथम अध्ययन---द्वितीय उद्देशक
अब अज्ञानियों के मत का स्वरूप अगली दो गाथाओं द्वारा शास्त्रकार बताते हैं---
मूल पाठ
जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जिआ । असंकियाई संकंति, संकियाइं असंकिणो ॥६॥ परियाणिआणि संकता, पासिताणि असंकिणो । अण्णाणभयसंविग्गा, संपलिति तहि तहि ॥७॥
संस्कृत छाया जविनो मृगा यथा सन्तः परित्राणेन वर्जिताः । अशंकितानि शंकन्ते, शंकितान्यशंकिनः ॥६॥ परित्राणितानि शंकमाना, पाशितान्यशंकिनः । अज्ञानभयसंविग्नाः, सम्पर्य्ययन्ते तत्र तत्र ॥७॥
अन्वयार्थ (जहा) जैसे (परिताणण) रक्षक से (वज्जिा ) रहित (जविणो) चंचल या तेज तर्रार (मिगा) मृग (असंकियाइ) शंका के अयोग्य स्थानों में (संकंति) शंका करते हैं (संकियाई) और शंका करने के योग्य स्थान में (असं किणो) शंका नहीं करते हैं। (परियाणिआणि) सुरक्षित स्थानों को (संकेता) शंकास्पद मानते हुए और (पासिताणि) पाश-बन्धनयुक्त स्थानों को (असंकिणो) शंकारहित मानते हुए (अण्णाणभयसंविग्गा) अज्ञान और भय से उद्विग्न वे मृग (तहि तहिं) उन-उन पाशयुक्त (खतरनाक) स्थलों में ही (संपलिति) जा पहुँचते हैं ।
भावार्थ __ जैसे रक्षक से रहित अत्यन्त शीघ्र भागने वाले हिरण शंका के अयोग्य स्थानों में शंका करने लगते हैं और जहाँ शंका करने योग्य स्थान हैं, वहाँ शंका नहीं करते हैं। ऐसे प्राणी सुरक्षित (खतरे से रहित) स्थानों को शंकास्पद स्थान मानते हैं, और जो पाश (बन्धन) से युक्त स्थान हैं, उन्हें शंकारहित मानते हए, अज्ञान और भय से डरे हुए वे मग उन-उन पाशबन्धनयुक्त स्थानों में ही अपना डेरा जमा लेते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org