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सूत्रकृतांग सूत्र
कृत नहीं होते । कुछ सुख-दुःख आदि नियतिकृत अवश्य होते हैं, व उन उन सुख दुःखों के कारणरूप कर्म का किसी अवसर विशेष में अवश्य उदय होता है, तब प्राप्त होते हैं । किन्तु कई सुख-दुःख अनियत ( नियतिकृत नहीं ) होते हैं, वे पुरुष के उद्योग, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि के द्वारा किये हुए होते हैं । अतः सुख-दुःख का कारण अकेली नियति नहीं है, किन्तु काल, स्वभाव, नियति, कर्म, ईश्वर आदि सब मिलकर ही कारण होते हैं ।
ऐसी स्थिति में अकेली नियति को कारण मानना अज्ञान है, और उसका मिथ्याग्रह रखना मिथ्यात्व है | आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में कहा हैकालो सहाव-निय
काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुषार्थ रूप पंच कारण समवाय के विषय में जो एकान्तवाद है, वह मिथ्या है । यही बात परस्पर सापेक्ष मानने से सम्यक्त्व है | ऐसी स्थिति में जो सुख-दुःख आदि को एकान्तरूप से नियतिकृत मानते हैं, वे निर्बुद्धिजन वास्तविक कारणों को नहीं समझते हैं । इसीलिए आर्हद्दर्शनी लोग सुख-दुःख आदि को कथंचित् उद्योगसाध्य भी मानते हैं । कारण यह है कि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है, और वह क्रिया उद्योग के अधीन है । इसीलिए तो नीतिकार कहते हैं
न देवमिति संचिन्त्य
त्यजेदुद्योगमात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ? ॥
जो भाग्य में लिखा है, वही होगा, ऐसा सोचकर व्यक्ति को अपना पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए । बिना पुरुषार्थ के तिलों से कौन तेल प्राप्त कर सकता है ?
नियतिवादियों ने पहले जो तर्क उठाया था कि उद्योग समान होने पर भी फल में विचित्रता क्यों दिखाई देती है ? वह तुम्हारे पक्ष में दोष है, किन्तु वास्तव में यह दोष नहीं है, क्योंकि उद्योग की विचित्रता भी फल की विचित्रता का कारण होती है । एक सरीखा उद्योग करने पर भी किसी को फल नहीं मिलता, वह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है। जैनदर्शन में उस अदृष्ट (कर्म) को भी सुख-दुःख आदि का कारण माना जाता है । इसी तरह काल भी सुख-दुःख आदि का कर्ता है, क्योंकि बकुल, चम्पक, अशोक, नाग और आम आदि वृक्षों में विशिष्ट काल आने पर ही फल-फूल की उत्पत्ति होती है, सर्वदा नहीं होती । नियतिवादियों ने जो आक्षेप किया है कि काल तो एकरूप है, उससे विचित्र जगत् की या सुख-दुःखादि फल की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, यह भी हमारे लिए दोषरूप नहीं है, क्योंकि फल की उत्पत्ति में अकेले काल को ही हमने कारण नहीं माना है । स्वभाव भी कथंचित्
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