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________________ १५० सूत्रकृतांग सूत्र कृत नहीं होते । कुछ सुख-दुःख आदि नियतिकृत अवश्य होते हैं, व उन उन सुख दुःखों के कारणरूप कर्म का किसी अवसर विशेष में अवश्य उदय होता है, तब प्राप्त होते हैं । किन्तु कई सुख-दुःख अनियत ( नियतिकृत नहीं ) होते हैं, वे पुरुष के उद्योग, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि के द्वारा किये हुए होते हैं । अतः सुख-दुःख का कारण अकेली नियति नहीं है, किन्तु काल, स्वभाव, नियति, कर्म, ईश्वर आदि सब मिलकर ही कारण होते हैं । ऐसी स्थिति में अकेली नियति को कारण मानना अज्ञान है, और उसका मिथ्याग्रह रखना मिथ्यात्व है | आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में कहा हैकालो सहाव-निय काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट (कर्म) और पुरुषार्थ रूप पंच कारण समवाय के विषय में जो एकान्तवाद है, वह मिथ्या है । यही बात परस्पर सापेक्ष मानने से सम्यक्त्व है | ऐसी स्थिति में जो सुख-दुःख आदि को एकान्तरूप से नियतिकृत मानते हैं, वे निर्बुद्धिजन वास्तविक कारणों को नहीं समझते हैं । इसीलिए आर्हद्दर्शनी लोग सुख-दुःख आदि को कथंचित् उद्योगसाध्य भी मानते हैं । कारण यह है कि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है, और वह क्रिया उद्योग के अधीन है । इसीलिए तो नीतिकार कहते हैं न देवमिति संचिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ? ॥ जो भाग्य में लिखा है, वही होगा, ऐसा सोचकर व्यक्ति को अपना पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए । बिना पुरुषार्थ के तिलों से कौन तेल प्राप्त कर सकता है ? नियतिवादियों ने पहले जो तर्क उठाया था कि उद्योग समान होने पर भी फल में विचित्रता क्यों दिखाई देती है ? वह तुम्हारे पक्ष में दोष है, किन्तु वास्तव में यह दोष नहीं है, क्योंकि उद्योग की विचित्रता भी फल की विचित्रता का कारण होती है । एक सरीखा उद्योग करने पर भी किसी को फल नहीं मिलता, वह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है। जैनदर्शन में उस अदृष्ट (कर्म) को भी सुख-दुःख आदि का कारण माना जाता है । इसी तरह काल भी सुख-दुःख आदि का कर्ता है, क्योंकि बकुल, चम्पक, अशोक, नाग और आम आदि वृक्षों में विशिष्ट काल आने पर ही फल-फूल की उत्पत्ति होती है, सर्वदा नहीं होती । नियतिवादियों ने जो आक्षेप किया है कि काल तो एकरूप है, उससे विचित्र जगत् की या सुख-दुःखादि फल की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, यह भी हमारे लिए दोषरूप नहीं है, क्योंकि फल की उत्पत्ति में अकेले काल को ही हमने कारण नहीं माना है । स्वभाव भी कथंचित् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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