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समय : प्रथम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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हैं । (निययानिययं संतं) सुख-दुःख आदि नियत और अनियत दोनों ही प्रकार के हैं, परन्तु इसे (अयाणता) नहीं जानते हुए वे नियतिवादी (अबुद्धिया) बुद्धिहीन हैं ।
भावार्थ पूर्वोक्त प्रकार से नियतिवाद का प्रतिपादन करते हुए नियतिवादी वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ हैं, तथापि स्वयं को पण्डित मानते हैं। सुख-दुःख आदि नियत और अनियत दोनों ही प्रकार के हैं, लेकिन इस बात को नहीं समझते हुए वे नियतिवादी बुद्धिहीन हैं।
व्याख्या
नियतिवाद की भ्रमपूर्ण मान्यता का निराकरण इससे पूर्व दो गाथाओं में नियतिवाद के सिद्धान्त का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, उसे बताने के लिये ‘एवं' शब्द का प्रयोग किया गया है ।
आशय यह है कि पूर्वोक्त दो गाथाओं में नियतिवाद के जिन युक्तिहीन सिद्धान्तों का निरूपण किया गया है, उसे भलीभांति समझे बिना तथा उसमें आने वाले पूर्वापर विरोध का विचार किये बिना ही अज्ञ होते हुए भी अपने आप को विशेष ज्ञानी मानते हैं । 'बाला' शब्द इसलिए प्रयुक्त किया गया है कि वे बच्चों की तरह की बचकानी बातें करते हैं और अपने हठ पर अड़े रहते हैं। दूसरा कोई उन्हें उनकी भूल बताए तो भी वे मानने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि वे अहंकारवश अपने आपको विद्वान माने हुए हैं। नीतिकार भृर्तृहरि की यह उक्ति उन पर सोलहों आने ठीक उतरती है
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवविदग्धं ब्रह्माऽपि तं नरं न रउजयेत् ॥ जो बिलकुल नासमझ और भोला है उसे आसानी से समझाया जा सकता है, जो विशेषज्ञ है उसे तो और भी सुगमता से समझाया जा सकता है, लेकिन जो अधकचरा पण्डित है, थोड़ा-सा ज्ञान पाकर अपने को बड़ा भारी विद्वान समझता है, उसे ब्रह्माजी भी समझा नहीं सकते, न मना सकते हैं ।
प्रश्न होता है, शास्त्रकार ने नियतिवादियों को पण्डितमानी क्यों कहा? इसके उत्तर में यह पंक्ति प्रस्तुत है--निययानिययं सन्तं अयाणंता अबुद्धिया।
तात्पर्य यह है कि नियतिवादी सुख-दुःख आदि को एकान्तरूप से नियतिकृत मानते हैं, उसी को मिथ्याग्रहवश पकड़े हुए हैं, वे मंदबुद्धि नियतिवादी इस बात को नहीं जानते, न ही जानने की कोशिश करते हैं कि संसार में सभी सुख-दु:ख नियति
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