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समय : प्रथम अध्ययन--द्वितीय उद्देशक
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कर्ता है। इसी तरह हम लोग कर्म को भी कर्ता मानते हैं। कर्म की विचित्रता के कारण फल की भी विचित्रता होती है। इसलिए हमारे मत में कोई दोष नहीं है। ईश्वर (कर्मबद्ध ईश्वर-आत्मा) भी जगत् का या सुख-दुःख का कर्ता है क्योंकि आत्मा ही विभिन्न योनियों में उत्पन्न होता हुआ, सर्वव्यापक होने के कारण ईश्वर है । वही ईश्वर सुख-दुःख आदि का कर्ता है, यह सर्वमतवादियां को अभीष्ट है। फिर सुख-दुःख का कर्ता ईश्वर है, इस मान्यता को दूषित करने के लिए नियतिवादियों ने 'आत्मा मूर्त है, या अर्मूत ?' इत्यादि जो शंका उठाई है, वह दूषण भी आत्मा (कर्मबद्ध आत्मा) को ईश्वर मानने पर समाप्त हो जाता है। तथैव स्वभाव भी कयंचित् कर्ता है । क्योंकि आत्मा का उपयोग रूप तथा असंख्य प्रदेशी होना तथा पुद्गलों का मूर्त होना एवं धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय का क्रमशः गतिस्थिति में सहायक होना तथा अमूर्त होना, यह सब स्वभावकृत ही तो हैं । 'स्वभाव आत्मा से भिन्न है या अभिन्न ?' इत्यादि तर्क प्रस्तुत करके नियतिवादी ने जो स्वभावकर्तृत्व में दोष लगाया है, वस्तुतः वह भी दोष नहीं है। कारण यह है कि स्वभाव आत्मा से भिन्न नहीं है तथा आत्मा कर्ता भी है, यह हमने स्वीकार किया है । अत: आत्मा का कर्तृत्व स्वभावकृत है। इसी प्रकार कर्म भी कर्ता है, क्योंकि वह जीव प्रदेश के साथ परस्पर मिल कर रहता हुआ कथंचित् जीव से अभिन्न है
और उसी कर्म के वश जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में भ्रमण करता हुआ सुख-दुःख को भोगता है।
इस प्रकार नियति और इससे भिन्न काल, स्वभाव, ईश्वर, कर्म आदि (अनियति) इन दोनों सुख-दुःखादि कतत्व युक्ति से सिद्ध होते हुए भी अपने हठाग्रह या पूर्वाग्रहवश सिर्फ नियति को एकान्त रूप से कर्ता मानकर नियतिवादी अपनी बुद्धि का दिवालियापन सूचित करते हैं। इस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त नियतिवादियों को क्या दुष्परिणाम भोगना पड़ता है ? इसे शास्त्रकार अगली गाथा में कहते हैं
मूल पाठ एवमेगे उ पासत्था, भुज्जो विप्पगम्भिया । एवं उवट्ठिआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया ॥५॥
संस्कृत छाया एवमेके तु पार्श्वस्थास्ते, भूयो विप्रगल्भिताः । एवमुपस्थिताः सन्तो, न ते दुःख विमोक्षकाः ।।५।।
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