________________
समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
१४७
या अचेतन ? यदि सचेतन है तो एक शरीर में दो चेतन मानने पड़ेंगे । यदि कर्म अचेतन है तो वह पाषाण खण्ड के लमान स्वयं परतन्त्र है, फिर वह सुख-दुःख का कर्ता कैसे हो सकता है ?
___इसलिये पुरुष, काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म ये सब सुख-दुःख के कर्ता नहीं हैं, यह सिद्ध हुआ ।
'सेहियं असेहियं वा' --- ये दोनों विशेषण सुख के हैं--एक सुख तो सैद्धिक है, दूसरा है-- असद्धिक । जो सुख सिद्ध यानी मुक्ति में उत्पन्न होता है, उसे सैद्धिक सुख कहते हैं। इसके विपरीत जो सुख असिद्धि यानी संसार का है, संसार में जो सातावेदनीय के उदय से सुख उत्पन्न होता है, उसे असैद्धिक सुख कहते हैं। अन्यथा सुख और दुःख दोनों ही सैद्धिक और असद्धिक रूप से दोनों तरह के होते हैं। पुष्प माला, चन्दन, सुन्दर अंगना आदि उपभोगरूप सिद्धि से उत्पन्न सुख सैद्धिक हैं, तथा चाबुक से मारना, और गर्म लोहे से दागना आदि सिद्धि से उत्पन्न दुःख सैद्धिक हैं। एवं जिसका बाह्य कारण ज्ञात नहीं है, ऐसा अनिर्वचनीय आनन्दरूप सुख मनुष्य के हृदय में अचानक उत्पन्न होता है, वह असैद्धिक सुख है, तथा ज्वर, सिर दर्द और शूल आदि दुःख, जो अपने अंग से उत्पन्न होते हैं वे असद्धिक दुःख हैं। ये दोनों प्रकार के सुख और दुःख पुरुष के अपने उद्योग से उत्पन्न नहीं होते हैं। तथा ये काल आदि किसी अन्य पदार्थ के द्वारा उत्पन्न नहीं किये जा सकते हैं । इन दोनों प्रकार के सुख-दुःखों को प्राणी पृथक-पृथक भोगते हैं।
संगइअं तं-ये सुख-दुःख प्राणियों को क्यों और किस कारण से होते हैं ? यही बताने के लिये नियतिवादी अपना अभिप्राय व्यक्त करता है----'संइअंतं' अर्थात् वह उनका सांगतिक है। सम्यक् अर्थात् अपने परिणाम से जो गति है, उसे संगति कहते हैं । जिस जीव को, जिस समय, जहाँ, जिस सुख-दुःख को अनुभव करना होता है, वह संगति कहलाती है । वही नियति है। उस नियति से सुख-दुःख उत्पन्न होता है, उसे सांगतिक कहते हैं । जैसे कि शास्त्रदातासमुच्चय में कहा है--
नियलेनैवरूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत् । ततो नियतिजा होते, तत्स्वरूपानुबंधतः । यद्यदेव यतो यावत्तत्तवैव ततस्तथा ।
नियतं जायते न्यायात् क एनं बाधयितुं क्षमः ? चूंकि संसार के सभी पदार्थ अपने-अपने नियतस्त्ररूपण उत्पन्न होते हैं । अतः यह ज्ञात हो जाता है कि ये सब नियति से उत्पन्न हुए हैं । यह समस्त चराचर जगत् नियतितत्त्व से गुथा हुआ है, उससे तादात्म्य होकर वे नियतिमय हो रहे हैं। जिसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org