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सूत्रकृतांग सूत्र
कः कण्ट कानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्त, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ? ॥
अर्थात्-- यह सारा संसार स्वभाव से ही अपनी सारी प्रवृत्ति कर रहा है। इसमें किसी की इच्छा या प्रयत्न का कोई हस्तक्षेप नहीं है। बताओ काँटों में तोक्षणता-नुकीलापन किसने पैदा किया ? हरिण और पक्षियों के विचित्र स्वभाव किसने किये ? पक्षियों के अनेक रंग के पंख, उनकी मधुर कूजन, हरिणों की सुन्दर
आँखें, उनका छलांगें भर कर कूदना-काँदना, ये सब स्वभाव से ही तो हैं । इसी प्रकार स्वभाव से ही सारे प्राणी प्रवृत्ति करते हैं। स्वभाव से ही किसी कार्य से निवृत्त होते हैं। इसलिये सच्चा द्रष्टा एवं विचारक वही है जो 'मैं करता हूँ', इस प्रकार के अहंकर्तृत्व से विरत होता है।' हरिणियों की आँखों में कौन अंजन आँजता है ? मोर को सुन्दर एवं रंग-बिरंगे परों से कौन सुशोभित करता है ? कमलों में पत्तों का एक जगह संचय कौन करता है ? या कुलीन व्यक्तियों में कौन विनयभाव धारण कराता है ? यह सब स्वभाव से ही होता है। अन्य कार्यों की बात तो जाने दो, समय, पतीली, इंधन, आग आदि सभी सामग्री होते हुए भी कोरडू मूंग नहीं पकता। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिसमें पकने का स्वभाव होता है, वही पक सकता है, अन्य नहीं। इस तरह स्वभाव के साथ अन्वयव्यतिरेक होने से समस्त कार्य स्वभावकृत ही समझना चाहिये।
समाधान -- स्वभाववादियों की ये सब युक्तियाँ सत्यसंगत नहीं हैं। क्योंकि स्वभाव सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता। हम पूछते हैं कि वह स्वभाव पुरुष से भिन्न है अभिन्न ? यदि स्वभाव पुरुष से भिन्न है, तो वह पुरुष के सुख-दुःखों को नहीं उत्पन्न कर सकता, क्योंकि वह पुरुष से भिन्न है। यदि स्वभाव पुरुष से भिन्न नहीं है तो वह पुरुष ही है और पुरुष सुख-दुःख का कर्ता नहीं है, यह नियतिवादियों द्वारा पहले कहा जा चुका है। कर्म भी सुख-दुःख का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ भी प्रश्न होगा--वह कर्म पुरुष से भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि कर्म पुरुष से अभिन्न है, तब तो बह पुरुष मात्र ही है। इस पक्ष में पुरुष सुख-दुःख का कर्ता नहीं है, यह पूर्वोक्त दोष आता है । यदि कर्म पुरुष से भिन्न है, तो वह सचेतन है
१. स्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः ।
नाऽहं कर्तेति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ॥ २. केनांजितानि नयनानि मृगांगनानाम्, कोऽलंकरोति रुचिरांगरूहान् मयूरान् । कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति, को वा ददाति विनयं कुलजेषु घुस्सु ।
-~-नन्दीमलया
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