________________
समय : प्रथम अध्ययन --- द्वितीय उद्देशक
१४५
'आत्म काम' इत्यादि श्रुति से विरोध आएगा । अर्थात् जो आत्मकाम यानी कृत कृत्य हो चुका है, उसे कुछ भी तो करना शेष नहीं रहा है, कृतकृत्य को जगत् रचना करके कुछ भी पाना नहीं है । अतः ईश्वर स्वार्थ प्रेरित होकर जगत् की रचना करता है, यह कथन मिथ्या है । करुणा से प्रेरित होकर वह जगत् की रचना करता है, यह भी मिथ्या दृष्टि है । क्योंकि जीव आखिर दुःखी कब होते हैं ? सृष्टि रचना के 'पश्चात् ही तो वे दुःखी हो सकते हैं । सृष्टि के अभाव में दुःख के कारण शरीर आदि जीवों के होते ही नहीं, तब तज्जन्य दुःख कैसे होगा ? अतः ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने में अन्योन्याश्रय दोष आता है । पहले सृष्टि रचना हो, तब प्राणियों को दुःखी देखकर ईश्वर को करुणा पैदा हो, और जब करुणा पैदा हो तब जाकर ईश्वर सृष्टि रचे । इसीलिए तो गीता में कहा है: - ईश्वर में कर्तत्व नहीं है, वह कर्म और कर्मफल के संयोग नहीं कराता, यह सब स्वभाव से ही होता है । ईश्वर किसी के पुण्य या पाप को ग्रहण नहीं करता । जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवृत हो जाता है, इसी कारण वे मूढ़ हो जाते हैं । अतः ये सब सुख-दु:ख आदि ईश्वरकृत नहीं है ।
शंका- स्वभाव को सुख - दुःख का कर्ता मानने में क्या दोष है ? क्योंकि स्वभाववादियों का कथन है- सारी सृष्टि और उसके कार्यों का कारण स्वभाव है । संसार में सभी शुभ - अशुभ सुख-दुःख आदि स्वभाव से होते हैं। सभी कार्य स्वभाव से होते हैं, अतः प्रयत्न निष्फल है । इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में नियतरूप से • संचार स्वभाव से होता है। किसी जीव को बुढ़ापा या पीड़ा का संयोग भी स्वभाव से होता है, उसमें प्रयत्न क्या करेगा ? 3 सभी पदार्थ अपने-अपने परिणमनस्वभाव के कारण ही उत्पन्न होते हैं । वस्तुओं का स्वभाव स्वतः परिणति करने का है । उदाहरणार्थ - मिट्टी से घड़ा ही बनता है, कपड़ा नहीं । सूत से कपड़ा ही बनता है, घड़ा नहीं । यह प्रतिनियत कार्यकारणभाव स्वभाव के बिना नहीं बन सकता । इसलिये सारा जगत् अपने स्वभाव से ही निष्पन्न है । कहा भी है
१. न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
२. नादत्ते कस्यचित् पापं
न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन
मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ३. यदिन्द्रियाणां नियतः प्रचारः प्रियाप्रियत्वं विषयेषु चैव । सुयुज्यते यज्जरयातिभिश्च कस्तत्र यत्नो ननु स स्वभावः ॥ ४. तुल्ये तत्र मृदः कुम्भो, न पटादिकम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- गीता
गीता
- बुद्ध चं०
शास्त्रदा०
www.jainelibrary.org