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________________ १४४ सूत्रकृतांग सूत्र होते हैं, राजा एवं सभी जीव काल आने पर समाप्त हो जाते हैं । " जो कुछ भी कर्म वर्तमान में हम देख रहे हैं, उन सबका प्रवर्तक काल है । काल ही उनका प्रतिपालक है, वही संहर्ता है। जो भी अतीत, अनागत या वर्तमान भाव प्रवृत्त हो रहे हैं, वे सब काल द्वारा निर्मित हैं । सुख-दुःख, भाव- अभाव आदि सब काल मूलक हैं । देवर्षि, सिद्ध और किन्नर सभी काल के वश में हैं। काल ही भगवान है, दैव है, साक्षात् परमेश्वर है 13 इसलिए काल ही सब कार्यों का कर्ता है । समाधान - यह कथन युक्तिसंगत नहीं है । काल सर्वव्यापक और एक है, यदि यही कर्ता होता तो कार्यों में भेद न दिखाई देता । विविध कारणों के भेद से कार्यों में भेद होता है, लेकिन जहाँ एक ही कारण हो, वहाँ कार्यों में भेद नहीं हो सकता । यदि काल ही एक मात्र सर्व कार्यों का कारण होता तो ग्रीष्म और शरद् आदि काल भेद से अथवा तन्तु कपाल आदि के भेद से कार्यों में जो भेद दृष्टिगोचर होता है, वह नहीं होना चाहिए । अतः यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध होने के कारण काल को कार्यों का कारण नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार ईश्वर भी सुख-दुःख आदि कर्ता नहीं हो सकता । क्योंकि यह प्रश्न उठेगा कि वह ईश्वर मूर्त है अमूर्त ? मूर्त मानना तो उचित नहीं, क्योंकि ईश्वर यदि मूर्त होगा तो हम लोगों के समान ही देहादिमान् होने से सबका कर्ता नहीं हो सकेगा। क्योंकि देहधारी पुरुष देह में सीमित होने से मूर्त होकर सभी कार्य नहीं कर सकेगा । ईश्वर को आकाश की तरह माना जाय तो वह सदा-सर्वदा क्रियारहित ही रहेगा । जो निष्क्रिय होता है, वह किसी कार्य का कर्ता नहीं होता । फिर यह शंका भी होगी कि ईश्वर रागादिमान् है या वीतराग ? यदि रागादियुक्त ईश्वर है तो वह हम लोगों के समान होने से जगत्कर्ता नहीं हो सकता । यदि वह वीतराग है तो किसी को सुरूप किसी को कुरूप, धनाढ्य निर्धन, विद्वान - मूर्ख आदि विचित्र जगत् को नहीं रच सकता । ईश्वर को कर्ता मानने पर उसमें निर्दयता, पक्षपात, अन्याय आदि अनेक दोषापत्तियाँ आ जाएँगी । फिर वह ईश्वर स्वार्थ से प्रेरित होकर जगत् को बनाता है, या करुणा से प्रेरित होकर ? प्रथम विकल्प में १. काले देवा विनश्यन्ति, काले चासुरपन्नगाः । नरेन्द्राः सर्वजीवाश्च, काले सर्वे विनश्यति || अतीतानागता ये भावा, ये च वर्तन्ते साम्प्रतम् । तान्कालनिर्मितान् बुद्धवा, न संज्ञां हातुमर्हति ॥ ३. कालस्य वशगाः सर्वे देवर्षि सिद्ध किन्नराः । कालोहि भगवान्देवः, स साक्षात्परमेश्वरः ।। २. Jain Education International For Private & Personal Use Only — हारीत सं० -महाभारत -हारीत सं० www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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