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समय : प्रथम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
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दूसरे भव में गमनागमन आदि का जो कुछ अनुभव किया जाता है, वह उनके अपने पुरुषार्थ से निष्पादित नहीं है-स्वकृत नहीं है । यहाँ गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके 'दुःख' शब्द से दुःख का कारण ही कहा गया है। दुःख शब्द उपलक्षण है, इसलिए इससे सुख आदि अन्य बातों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। कहने का आशय यह है कि यह जो जीवों को सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह उनके उद्योगरूप कारण से उत्पन्न किया हुआ नहीं है। यदि अपने-अपने उद्योग के प्रभाव से सुख-दुःख आदि मिले, तब तो सेवक, किसान और वणिक् आदि का उद्योग एक सरीखा होने पर उनके फल में विभिन्नता या फल की अप्राप्ति नहीं होनी चाहिए, किन्तु इसके विपरीत यह देखा जाता है कि किसी को विशिष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती और किसी वणिक को बहुत उत्तम फल मिलता है, किसान को पुरुषार्थ के अनुरूप फल नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता है कि अपने पुरुषार्थ से व्यक्ति को सुख-दुःख रूप फल नहीं मिलता ।
इसी प्रकार काल, ईश्वर, स्वभाव और कर्म आदि के प्रभाव से जीवों को सुख-दुःखरूप फल नहीं मिलते, अर्थात् काल आदि अन्य कारकों द्वारा कृत भी जीवों के सुख-दुःख आदि नहीं हो सकते ।
शंका--पुरुषार्थ यदि कार्य के प्रति कारण नहीं है तो न सही, काल तो सब का कर्ता है । काल ही सारे विश्व की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का कारण है। महाभारत में कहा गया है---'काल ही समस्त भूतों को परिपक्व बनाता है, काल ही प्रजा का संहार करता है, काल ही सोते हुए जगत् के जीवों में स्वयं जागता रहता है, काल के सामर्थ्य का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।'' काल ही समस्त कार्यों का जनक है । यही जगत् का आधार है ।२ कालवादियों के मत से यह आत्मा स्वरूप से विद्यमान है, नित्य है। सारा जगत् कालकृत है। काल के बिना चम्पा, अशोक, आम आदि वनस्पतियों में फूल तथा फलों का लगना, कुहरे से जगत् को धूमिल करने वाला हिमपात, नक्षत्रों का संचार, गर्भाधान, वर्षा आदि ऋतुओं का समय पर आगमन, बाल, यौवन एवं वृद्धत्व आदि अवस्थाएँ, ये सब काल के प्रति नियत विभाग से ही सम्बन्ध रखते हैं । मूंग की दाल का परिपाक भी कालक्रम से होता है। काल आने पर ही देवताओं का च्यवन होता है, काल आने पर ही असुर व सर्प नष्ट
१. काल: पचति भूतानि, काल: सहरते प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागति, कालोहि दुरतिक्रमः ।। २. जन्मानां जनकः कालो, जगतामाश्रयो मतः ।
-~-हारीत सं०
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