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________________ समय : प्रथम अध्ययन--प्रथम उद्देशक संस्कृत छाया नानाविधानि दुःखान्यनुभवन्ति पुनः पुनः । संसारचक्रवाले मृत्युव्याधिजराकुले ॥२६।। (इति ब्रवीमि) अन्वयार्थ (मच्चुवाहिजराकुले) मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे से व्याप्त (संसारचक्कवालमि) संसार रूपी (जन्म-मरण के) चक्र में (पुणो पुणो) वे अन्यदर्शनी भिथ्यात्वग्रस्त वारबार (नाणाविहाई) अनेक प्रकार के (दुक्खाइं) दुःखों का (अणुहोति) अनुभव करते हैं। भावार्थ वे मिथ्यात्वग्रस्त अन्यदर्शनी मृत्यु, रोग एवं वृद्धावस्था से परिपूर्ण इस संसार (जन्म-मरण) के चक्र में बार-बार अनेक प्रकार के शारीरिकमानसिक दुःखों को भोगते हैं। व्याख्या अन्यदर्शनियों को मिलनेवाला भयंकर फल 'नाणाविहाई दुवखाई अणु होंति' पूर्वोक्त छह गाथाओं में तो उन अन्यदर्शनियों की आत्म-शक्ति की कुण्ठता के कारण गर्भ-जन्म-मृत्यु-संसार-दुःख आदि को काटने की असमर्थता बताई थी, अब इस गाथा में यह बतलाते हैं कि उन अन्य मतवादियों को इस मृत्यु-व्याधि-जरा से पूर्ण संसारचक्र में थोड़ा-सा इन्द्रियजनित क्षणिक वैषयिक सुख तो शायद इस एक मानव जन्म में मिल जाता होगा, लेकिन इसके बाद उक्त घोर मिथ्यात्वग्रस्तता के कारण पुनः पुनः भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेने के कारण एक ही नहीं, अनेक एक से एक बढ़कर भयंकर दुखों का सामना करना पड़ता है। उन गतियों तथा योनियों में वह सुख की साँस ले नहीं सकता। इसका कारण यह है कि एक व्यक्ति तो अज्ञान के कारण स्वयं मिथ्यात्व से ग्रस्त रहता है, वह इतना तीव्र कर्मबन्ध नहीं करता, किन्तु जो मिथ्यात्व के खोटे सिक्के को संसार के बाजार में खरे सिक्के के रूप में चलाता है, उस का जनता के सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन में प्रचार-प्रसार करता है, हजारों-लाखों को मुक्तिदु:खमुक्ति का प्रलोभन देकर जान-बूझकर उस असत्य विष का पान कराता है, भला वह इतने घोर दण्ड के बिना कैसे छुटकारा पा सकता है ? इसलिए शास्त्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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