________________
१३६
सूत्रकृतांग सूत्र
किसी की लल्लोचप्पो किये बिना खरी-खरी सुना देते हैं कि ऐसे मिथ्यात्वग्रस्त मतवादी नरक - तिर्यंच- मनुष्य - देवरूप चारों गतियों से युक्त जन्म-मृत्यु-जरा व्याधि से व्याप्त संसार में विविध दुखों का अनुभव करते हैं ।
चारों गतियों में असातावेदनीय के उदय से कैसे-कैसे दुखों का बार-बार अनुभव करना पड़ता है, इसे संक्षेप में बताते हैं । वे नरक में आरे से चीरे जाते हैं, कुंभीपाक में पकाये जाते हैं, गर्म लोहे से चिपटाये जाते हैं, शाल्मली वृक्ष से आलिंगन कराये जाते हैं । तिर्यंच गति में जन्म लेकर शीत, उष्ण, भूख-प्यास, दहन, अंकन, ताड़न, अतिभारवहन आदि नाना कष्टों को उन्हें सहना पड़ता है । मनुष्य जन्म में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, शोक, रुदन, आदि दुख भोगने पड़ते हैं और देव गति में भी जन्म लेकर अभियोगीपन, ईर्ष्या, किल्विषीपन, पतन ( च्यवन) आदि नाना प्रकार
दुख भोगने पड़ते हैं । क्या सुख है इस संसार में ? क्षणिक विषय सुख के बाद फिर वही हाय हाय ! ऐसे घोर दुखों को भोगते समय कहाँ निश्चिन्तता; और जिज्ञासा भी कैसे पैदा हो सकती है ? तब उस दुखग्रस्त जीव को सम्यग्ज्ञान की जिज्ञासा भी कैसे पैदा हो सकती है ? अतः वे मिथ्यात्व से ग्रस्त होकर जाते हैं, लेकिन विविध गतियों एवं योनियों में भटकने के बाद भी उस जीव के मन-मस्तिष्क को बार-बार मिथ्यात्व ही मिथ्यात्व का गाढ़ अंधेरा आ घेरता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- 'नाणाविहारं दुक्खाइं अणुहोंति' आशय यह है कि वे मिथ्या सिद्धान्त प्ररूपक विविध वादी जन्म-मृत्युरूप संसार में पूर्वोक्त दुःख बार-बार भोगते हैं ।
अब इस उद्देशक की अन्तिम गाथा में प्रथम गाथा में कही हुई बात का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
मूल पाठ
उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो । नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥ २७ ॥
संस्कृत छाया
उच्चावचानि गच्छन्तो, गर्भमेष्यन्त्यनन्तशः । ज्ञातपुत्रो महावीर, एवमाह जिनोत्तमः ॥२७॥
अन्वयार्थ
( नायपुत्त ) ज्ञातपुत्र ( जिणोत्तमे) वीतरागी = जिनों में उत्तम ( महावीरे) तीर्थंकर महावीर ने ( एवमाह) इस प्रकार कहा है कि पूर्वोक्त अफलवादी अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org