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________________ १३४ सूत्रकृतांग सूत्र सामग्री मिलने पर भी सुख कहाँ ? इसीलिए शास्त्रकार ने छह गाथाओं में अलगअलग प्रकार का कर्मफल उक्त विभिन्न मतवादियों को प्राप्त होने का तथा धोर कर्मबन्धनों से उनकी आत्मशक्ति विकसित न होकर कुण्ठित हो जाने का वर्णन किया है । इसीलिए जैसे - आत्मा की कर्मबन्धनों से मुक्ति के समय होने वाले कर्मबन्धनों के प्रवाह (संसार प्रवाह ) को, संसार को, माता के गर्भ में बार-बार आगमन को, बार-बार जन्म लेने के दुःख को शारीरिक-मानसिक दुखों को तथा मृत्यु को वह पार नहीं कर सकता । शास्त्रकार ने इन छह गाथाओं में से प्रत्येक की तीन पंक्तियों में, एक सरीखी बात सूचित की है, अन्तिम चौथी पंक्ति में 'ओहंतरा ssहिया', संसारपारगा, गब्भस्स पारगा, जम्मस्स पारगा, दुक्खस्स पारगा तथा मारस्स पारगा, कहकर कर्मबन्धन से मुक्त साधक जैसे कर्मबन्धन प्रवाह, संसार, गर्भ, जन्म, मरण, शारीरिक-मानसिक दुःख आदि रूप समस्त दुखों को समाप्त कर देता है, वैसे ये पूर्वोक्त मतवादी समाप्त नहीं कर पाते। क्योंकि जब तक कर्मबन्धन के स्वरूप, कारण, और उनसे छुटकारे के उपाय - मुक्ति मार्ग का सम्यक् परिज्ञान न हो, मिथ्याग्रहवश मिथ्यात्व से पिण्ड न छूटे, तब तक कर्मबन्धन के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली इन सब चीजों -- संसार, जन्म-मरण, गर्भ, दुःख आदि को कोई कैसे समाप्त कर सकेगा ? यहाँ 'पारगा' शब्द (पार तीर समाप्तौ ) पार और तीर इन दोनों समाप्त्यर्थक धातुओं से बना है। जिसका अर्थ होता है - समाप्त करने वाले, किनारे तक पहुँचने वाले या किनाराकशी करने वाले । जब तक जीवन में मिथ्यात्व रहेगा, तब तक चाहे पर्वत पर चला जाय, घोर जंगल में जाकर ध्यान लगा ले, अनेक कठोर तप करने लगे या कष्टकर विविध क्रियाकाण्ड भी कर ले, वह व्यक्ति जन्म-मरण, संसार, गर्भ, दु:ख आदि को समाप्त नहीं कर सकता । इसीलिए उक्त मतवादियों में मुक्ति, सम्पूर्ण कर्मबन्धनों से मुक्ति, समस्त दुखों से सर्वदा तथा सर्वथा मुक्ति की असमर्थता इन छह गाथाओं द्वारा सूचित कर है । अब अगली गाथा में उन मतवादियों को मिथ्यात्व के कारण होने वाले घोर कर्मबन्धनों का फल क्या और किस प्रकार का मिलता है, इसे बताते हैं मूल पाठ नाणाविहाई दुखाई, अणुहोंति पुणो-पुणो । संसारचक्कवालम्मि, मच्चुवा हिजराकुले Jain Education International For Private & Personal Use Only ॥२६॥ ( ति बेमि) www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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