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समय : प्रथम अध्ययन–प्रथम उद्देशक विषय में तो दिमाग में अन्धेरा है । 'प्रथम ज्ञान और फिर क्रिया' वाला सिद्धान्त वे भूल जाते हैं। यही इस प्रथम पंक्ति का आशय है ।
न ते धम्मविओ जणा-इस पंक्ति में उन्हीं पूर्वोक्त मतवादियों के विषय में कहा गया है कि वे सन्धि से अनभिज्ञ मतवादी लोग धर्म के तत्त्ववेत्ता नहीं है। कैसे नहीं है ? इसे बताने के लिए पिछली युक्तियों पर हमें ध्यान देना होगा। जब कर्मबन्धन और उसके कारणों की सन्धि (रहस्य) को नहीं जानेंगे-मानेंगे तो आत्मा के धर्म को वे कैसे जानेंगे ? शुभाशुभ कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले पुण्य-पाप और उनके परिणामयश प्राप्त होने वाले स्वर्ग-नरक आदि तथा शुद्ध परिणामों एवं कर्मक्षय से प्राप्त होने वाली पंचम गति मोक्ष की कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी। आत्मा का धर्म क्या है ? इस बात को भी वे नहीं जानते । इसीलिए शास्त्रकार ने उनके लिए सूचित किया है-न ते धम्मविओ जणा।
जे ते उ वाइणो एवं-अब तीसरी पंक्ति में शास्त्रकार यह सूचित करते हैं कि जिन मिथ्यासिद्धान्तवादियों का हमने पूर्वगाथाओं में जिक्र किया है, वे अपने सिद्धान्तों के थोथेपन या अयर्थाथत्व को जानकर भी, युक्तियों एवं प्रमाणों से खण्डित होने पर भी मिथ्याग्रह या पूर्वाग्रहवश स्वयं पकड़े रखते हैं, और जगह-जगह अपने मिथ्यामत की डींग हांकते फिरते हैं । 'एक तो करेला, फिर नीम पर चढ़ा' वाली कहावत के अनुसार अपने मिथ्यात्व एवं उसके अभिमान से ग्रस्त होकर अपने मत की झूठी शेखी बधारने वाले वे लोग एक तो मिथ्यात्व और दूसरे उस मिथ्यात्व के जोर-शोर से प्रचार के कारण तथा भोले-भाले हजारों-लाखों लोगों को अपने मिथ्यामत में फँसाने के कारण घोर अशुभ (पाप) कर्मबन्ध से छूट नहीं सकते। उक्त अशुभ (पाप) कर्मबन्ध के फलस्वरूप वे नरक-तिर्यञ्च आदि विविध गतियों एवं योनियों में भटकते हुए नाना प्रकार के दुख भोगते रहते हैं। बुद्धि में मिथ्यात्वरूपी अन्धकार होने के कारण उन नरक-तिर्यंच योनियों में भी उन तथाकथित वादियों को सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन प्राय: नहीं मिलता।
यदि कहें कि वे जो अपने जीवन में अज्ञानवश अनेक तप, जप, क्रियाकाण्ड या कष्टसहन आदि क्रियाएँ करते हैं, क्या उसके फलस्वरूप वे दुःख से मुक्त नहीं हो सकेंगे ? जैन दृष्टि कहती है-वे उक्त क्रियाकाण्डों या तप-जप आदि के फलस्वरूप मन्द कषाय के कारण कदाचित देव योनि प्राप्त कर लें, परन्तु वहाँ भी उन्हें सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन उपलब्ध न होने से वे अज्ञान, मोह, काम, लोभवश अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक दुःख-सुख प्राप्त करते रहते हैं । वहाँ उन्हें इतनी सुख
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