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समय : प्रथम अध्ययन-प्रथम उद्देशक
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हुए) दर्शन---मत को (आवण्णा) प्राप्त कर (सम्वदुक्का) समस्त दुखों से (विमुच्चई) मुक्त हो जाते हैं।
भावार्थ घर में निवास करने वाला गृहस्थ तथा वनवासी तापस एवं पर्वत की गूफा में रहने वाले या गिरिजन भी अथवा प्रव्रज्या (दीक्षा) धारण किये हए ऋषि या परिव्राजक जो भी हमारे इस दर्शन (मत) को प्राप्त या स्वीकार कर लेते हैं, वे समस्त दुःखों से मुक्त हो जाते हैं।
व्याख्या
अन्य दर्शन वालों का अपना-अपना मताग्रह 'इमं दरिसणमावण्णा'-जैसे दुकानदार अपनी दुकान की ओर ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ग्राहकों से प्रायः यह कहा करते हैं—मेरी दुकान पर जैसा बढ़िया माल मिलेगा, सस्ता मिलेगा, तुम्हारे मनपसन्द का मिलेगा, वैसा किसी दूसरी दुकान में नहीं मिलेगा। दूसरी दुकान पर जाओगे तो वहाँ ठगा जाओगे, वे तुम्हें खराब व घटिया माल दे देंगे और कीमत भी ज्यादा ले लेंगे वैसे ही विविध वादों, दर्शनों और मतों वाले अपनी विचारधाराओं को भ्रान्त या मिथ्या होते हुए भी पूर्वाग्रहवश प्रायः यह कहा करते हैं हमारे माने हुए या प्रवर्तित मत, दर्शन या वाद को स्वीकार कर लोगे तो समस्त दुःखों से मुक्त हो जाओगे । ऐसा सरल, सीधा और सच्चा दर्शन या मत संसार में और कोई नहीं मिलेगा, दूसरे मतों में मुक्ति का मार्ग अत्यन्त दुरूह और कठिन बताया गया है, जबकि हमारे मत में मुक्ति का मार्ग अत्यन्त सरल, सुसाध्य है, एवं अधिक कष्ट कर भी नहीं है । केवल अमुक-अमुक तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करने से ही मुक्ति हो जाती है। सिर्फ ज्ञानाग्नि ही समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। हमारे मत को ग्रहण कर लो बस बेड़ा पार हो जाएगा, सब दुःखों से छुटकारा हो जाएगा। बौद्धमत की ओर आकृष्ट करने
१. जैसे कि सांख्यदर्शन के प्ररूपकों ने कहा है
पंचविंशति तत्त्वज्ञो यत्रकुत्राश्रमे रतः ।
जटी मुंडी शिखी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः ।। २. इसी प्रकार गीता में बताया है--
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ! ।
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