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सूत्रकृतांग सूत्र
पदार्थ का पर्याय यानी अवस्था-विशेष है, अभावमात्र नहीं है। वह अवस्था-विशेष भावरूप है क्योंकि वह पूर्व-अवस्था को नष्ट करके उत्पन्न होता है, इसलिए जो कपाल आदि की उत्पत्ति है, वही घट आदि का विनाश है, जो कारणवश, कभी-कभी होता है । इस कारण भी वह सहेतुक है।
पदार्थों की व्यवस्था के लिए चार प्रकार के अभाव को मानना आवश्यक है। इस प्रकार क्षणभंगवाद विचारसंगत न होने से वस्तु परिणामी नित्य है, यह पक्ष मानना ही ठीक है।
जैन दृष्टि से आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, दूसरे भवों में जाने वाला और भूतों से कथंचित् भिन्न है तथा शरीर के साथ मिलकर रहने से वह शरीर से कथंचित् अभिन्न है। वह आत्मा, नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में कारणरूप कर्मों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों में बदलता रहता है। इसलिए वह सहेतुक भी है तथा आत्मा के निज स्वरूप का कभी नाश नहीं होता इसलिए वह नित्य और निर्हेतुक भी है।
इस तरह शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध होने पर भी उसे चार धातुओं से बना हुआ शरीर मात्र बताना पागलों की सी बकवास है।
अव शास्त्रकार पूर्वोक्त गाथाओं में वणित चार्वाक से लेकर बौद्धदर्शन पर्यन्त विविध दार्शनिको का अपने-अपने दर्शन के प्रति जो मतांग्रह है तथा उस मताग्रह के फलस्वरूप उनका दर्शन मिथ्याभिवाद पूर्ण मिथ्यात्व से ग्रस्त हो जाता है, इसे बताने के लिए कहते हैं
मूल पाठ अगारमावसंतावि, अरण्णा वावि पव्वया । इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चई ।।१९।।
संस्कृत छाया आगारमावसन्तोऽपि, आरण्या वाऽपि प्रव्रजिताः । इदं दर्शनमापन्नाः, सर्वदुःखाद् विमुच्यन्ते ॥१९॥
अन्वयार्थ (अगारं) घर में (आवसंतावि) निवास करने वाले भी (अरण्णा) वन में निवास करने वाले तापस (पन्वया) पार्वत = पर्वत की गुफाओं में रहने वाले (वावि) अथवा प्रवजित =प्रव्रज्या धारण किये हुए पुरुष भी (इमं दरिसणं) हमारे इस (माने
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